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( १४७८) योगवासिष्ठ । बहुरि देवीको कहत भया ॥ हे देवी! अब-तू आत्मपदविषे अरु बोध आदिकको भी लीन कर अपनेविषे निर्वाण होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे शिलतिरवसिष्ठब्रह्मसंवादृवर्णनं नाम शताधिकससाशीतितमः सर्गः ॥ १८७ ॥ । । । । शताधिकाष्टाशीतितमः सर्गः १८८. . अन्यजगत्प्रलयवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इसप्रकार ब्रह्मा कहिकार पद्मासैन किया, अपर भी सब जन संयुक्त तब अकार उकार मकारको छोडिकारि अर्धमात्राविषे स्थित भया, तब ब्रह्माजीकी मूर्ति ऐसी दृष्ट आवै, जैसी कागजऊपर मूर्ति लिखी होती है, अरु निर्वेदना हुआ, जेता कछु जगजालका ज्ञान था, तिसका विस्मरण किया, अरु देवीने भी उसीप्रकार पद्मासन किया,ब्रह्माजीके निश्चयविषे लीन हो जाने लगी, जब ब्रह्माजी निर्वेदना ब्रह्माविषे लीन होने लगा, तब जेते कछु उपद्रव थे, सो अति उदय हुए मनुष्य पाप करने लगे, स्त्रियां दुराचाारणी होत भई, सब जीवने धर्मका त्याग किया, कामी पुरुष बहुत भए, परस्त्रियोंकेसाथ संग करें, पुरुष स्त्रियां शंका किसीकी न करें, काम क्रोध लोभ मोहराग द्वेष बढि गए, शास्त्रकी मर्यादाको त्यागत भए, अनीश्वरवादी होत भए, वर्षा होनेते रहिगई, कुहिड परने लगी, अरु काल पडा, दुष्टजन धनपात्र होने लगे, धर्मात्मा आपदा भोगने लगे,चोर चोरने लगे,राजा मद्यपान करने लगे, जीवनको बड़े दुःख प्राप्त होने लगे, तीनों तापकार जलते रहेंही, राजा न्यायको त्यागत भए, इत्यादिक जो पाप आचार थे, सो उदय भए, धर्म छपन हो गया, अज्ञानी राज्य करें, पंडित ज्ञानी टहल करें, दुर्जनोंकी महान् पूजा हो3, सत्य पंडितका निरादर होवे,तब जीवके समूह इकड़े भए पृथ्वीकेपर पृथ्वी अपनी सत्ताको त्यागत भई काहेते जो पृथ्वी ब्रह्मके संकल्पविपे पड़ी थी, जब उसने अपना संकल्प लैंचा, तब निर्जीव हो । गई, चैतन्यता निकस गई, जो स्थान भूतके विचरनेका होवे सो खाईंकी