पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५९९

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(१४८९), योगवासिष्ठ । वह मच्छ उनको भक्षण करते भए, अरुतरंग आपसमें युद्ध करें, जैसे मतवारे हस्ती शब्द करते हैं, तैसे युद्ध करें॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे,अन्यजगत्प्रलयवर्णनं नाम शताधिकाष्टाशीतितमः सर्गः ॥१८८॥ शताधिकैकोननवतितमः सर्गः १८९. निर्वाणवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । वह विरारूप जो ब्रह्मा था, जिसका देह सम्पूर्ण जगत् था, सो अपने प्राणको खेंचत भया, तब छत्र, चक्रके फेरनेहारा जो वायु है, सो अपनी मर्यादा त्यागिकरि क्षोभ करने लगा तब वह चक्र नाश होने लगे, काहेते जो ब्रह्माके संकल्पविषेथे, किसीकी समर्थता नहीं जो उनको रक्खै अरु तेजमें जो देवता थे सो पवनके आधार थे, वह पवनके निकसनेकरि निराधार भए; तब समुद्रवि गिरने लगे, जैसे वृक्षसों फल गिरते हैं तैसे गिरते भए, जैसे संकल्पके नाश हुए, संकल्पका वृक्ष गिरता है, जैसे पक्व फल समयकारि गिरता है, तैसे सब गिरते भए, सुमेरुकी कंदरा गिरत भई, पवनका बडा क्षोभ हुआ, अरु शब्द हुआ, अपनी शांतिके निमित्त पवनका क्षोभ हुआ, जैसे पवनविषे तृण फिरता है, तैसे आकाशविषे पवन फिरने लगा देवताके रहनेवाला जो सुमेरु पर्वत था सो गिरता भया ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! संकल्परूप जो ब्रह्मा था सो विराट् आत्मा है, सब जगत् उसका देह है, भूमंडल उसका कौन अंग है, पाताल कौन अंग है, स्वर्गलोक कौन अंग है, अरु संकल्परूप कैसे अंग होते हैं, संकल्प तौ आकाशरूप होते हैं, अरुजगत प्रत्यक्ष पिंडाकार दृष्ट आवै, जो जिसते उपजता है, सो तिसही जैसा होता है, तो यह जगत् ब्रह्माके अंग कैसे हैं । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी 1 इस जगत्ते पूर्व केवल चिन्मात्र था, तिसविषे जगत नसत था, न असत् था, केवल आत्मत्वमात्र अपने आप विषे स्थित था, जैसे आकाश अपने आपविषे स्थित है, एक अ पहनेवालाजो सुमो ब्रह्मा था सीताल कौन अंती आकाश