पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(१४८३) योगवासिष्ठ । कैसा हौ, मैं शुद्ध हौं, सर्वकल्पनाते रहित हौं, चिदाकाश हौं अरु मेरेविषे जो वसिष्ठ अहं फुरा है, सो फुरा नहीं, फुरेकी नई भासताहै, एक भी आत्माको किंचन हैं, हुआ कुछ नहीं, ताते तुम भी इसीप्रकार जानकारे निवसनिक हो, अरु अपने प्रकृत आचारको करहु अथवा न, करहु, जो इच्छा है सो करहु परंतु करने अकरनेका संकल्प न करडु, परम मौनदि स्थित होडु,ज्ञानवान्को यह अनुभव होताहै,ताते तुमभी ऐसेधार॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे निर्वाणवर्णनं नाम शताधिकैकोननवतितमः सर्गः ॥ १८९ ॥ शताधिकनवतितमः सर्गः १९०. विराडात्मवर्णनम् ।। राम उवाच ।। हे भगवन् ! बंध मोक्ष जगत् बुद्धि न सत् है, न असत् है, उदय भी नहीं हुआ, अस्त भी नहीं होता, केवल ज्योंको त्यों आत्मा स्थित है, ऐसे तुमने मुझको उपदेश किया है सो मैंने जाना है, आत्माविषे जगत् न उपजता है, न मिटता है, तुमने अमृतरूपी वचनोंसों उपदेश किया है, सो मैंने जाना हैं, सुनता मैं तृप्त नहीं होता, अमृतकी नई पान करता हौं, अरु जगत् सत् असत्ते रहित सन्मात्र हैं, तिसको मैं जाना है, बहुरि कहौ कि, संसारभ्रम कैसे उपजता है, अरु अनुभव कैसे होता है १ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! जो कछु तुझको दृष्ट आता है, स्थावर जंगम जगत् सर्व प्रकार देश काल संयुक्त, तिसके नाशका नाम महाप्रलय हैं, तिसविषे ब्रह्मा विष्णु रुद्र इंद्र भी लीन हो जाते हैं, तिसके पाछे जो शेष रहता है, सो स्वच्छ है, अन है, अनादि है, केवल आत्मत्वमात्र है, तिसविषे वाणीकी गम नहीं. कैसे कहिये, केवल अपने आपविषे स्थित हैं, परम सूक्ष्म है, तिस विषे आकाश भी सूक्ष्म है, जैसे सुमेरुपर्वतके निकट राईको दाणा सूक्ष्म है, तैसे आकाशते आत्मा सूक्ष्म है, कैसी सूक्ष्मता है, जो संवेदनते रहित चिन्मात्र है, तिसविषे अहं किंचन होकर फुरा है, अरु आत्मा