पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६०२

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विराडात्मवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१४८३) सदा निर्विकल्प है, सात समुद्र हैं, देशकालके भ्रमते रहित हैं, केवल चेतनधन अपने आपविषे स्थित है,जैसे स्वप्नविषे अपने भावको लेकर स्थित होता है, तैसे आत्मा अपने भावको लेकर चेतन किंचन होता है। तिसका नाम ब्रह्मा है, सो भी चिद्रूप है । हे रामजी ! चिद् अणु जो अपने भावको लेकर उदय हुआ है, सो चैत्यनाम दृश्यको देखत भया है, तब उसका अनुभव क्या १-मिथ्या हुआ जैसे स्वप्नविषे अपना मरण देखता है, सो अनुभव मिथ्या है, तैसे चिद् अणु दृष्टिकर दृश्य को देखता है, सो मिथ्यादृष्टि है, जब चिद् अणु अपने स्वरूपको देखत भया,सो केवल निराकाररूपहे, परंतु अहं जो ऐसे बीज दृढ होते हैं, तिसकार अपने आपस निकसि दृश्यको संकल्पकर देखता है, जैसे बीजते अंकुर निकसता, तैसे संकल्पके ऊरणेकार देश काल द्रव्य द्रष्टा दर्शन दृश्य होताहै, वास्तवते हुआ कछु नहीं, आत्मा सदा अपने स्वभावविषे स्थित है, परंतु संकल्पकार हुएकी नई भासता है, सो देश है, जहाँ चिद् अणु भासै अरु जिस समय भासै सो काल है, अरु जी भान हुआ सो क्रिया हुआ, भानका ग्रहण हुआ सो दुव्य है, देखनेको जो वृत्ति दौडती हैं, सो नेत्र होकार स्थित हुए हैं, अरु देखने लगेते जिसको देखते हैं, सो भी शून्य है, देखेनेहारे शून्य हैं, सब असत्य है, कछु बना नहीं,जैसे आकाशविषे आकाश स्थितहै, तैसे आत्मा अपने आपविषे स्थित है, संकल्पद्वारा सब कछु बनता जाताहै, चिद् अणु जो भासा है, सो दृश्यरूप होकार स्थितभयाहै, जब चिद् अणुविधै रूपकी वृत्ति फुरती है, तब चक्षु इंद्रिय होकरि स्थित होती है, जब श्रवणकी वृत्ति फुरती है, तब श्रोत्र होकारे स्थित होते हैं, जब स्पर्शकी वृत्ति फ़रती है, तब त्वचा ईद्रिय होकार स्थित होती है, जब सुगंधि लेनेकी वृत्ति फुरती है, तब नासिका इंद्रिय होकार स्थित होती है, जब रस लेनेकी इच्छा होती है, तब जिह्वा इंद्रिय होती है, अरु स्वाद लेती है। हे रामजी । प्रथम यह चिद् अनामते रहित फुरा है, अरु संपूर्ण जगत् भी तद्रूपही था, अब भी वही केवल आकाशरूप है, अरु संकल्पकार अपनेविषे पिंड धनको देखाहै; बहुरि शरीरको देखा बहार