पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६०४

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विराडात्मवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१४८५) वविषे स्थित है, जैसे आकाश अपनी शून्यताविषे स्थित हैं, तैसे आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित हैं, अरु सर्वका बीज है, अरु त्रिलोकरूप . बँदका मेघ है, कारणका कारण वही है, कालविषे नीति वही आत्मा हैं, क्रियाविषे क्रिया वही है, आदिविराट् पुरुषका शरीर भी नहीं, अरु हम - तुम भी नहीं, केवल चिदाकाशरूप अब भी इनका शरीर आकाशरूप है, आत्मसत्ता इतर अपर अवस्थाको नहीं प्राप्त भए, केवल आकाशरूप जैसे स्वप्नविषे युद्ध होते हैं, अरु मेघ गर्जते दृष्टि आते हैं, इत्यादिक शब्द अर्थ भासते हैं, सो केवल आकाशरूप हैं, बना कछु नहीं, परंतु निद्रादोषकार भासते हैं, जब जागता है, तब जानता हैं, जो हुआ कछु न था आकाशरूप है, तैसे जो पुरुष अनादि अविद्याते जागा है, तिसको जगत् आकाशरूप भासता है । हे रामजी ! बहुत योजनपर्यंत विराद् पुरुषका देह है, तौ भी ब्रह्म आकाशके सूक्ष्म अणुविषे स्थित है, यह त्रिलोकी एक चिअणुविषे स्थित है, विराट् पुरुष इसका ऐसा है, जिसका आदि अंत मध्य नहीं भासता ऐसा स्थूल देह इसका है, तो भी एक चावलके समान नहीं ॥ हे रामचंद्र ! यह जगत् अरु जगत्के भाग विस्तीर्ण इष्ट आते हैं, तो भी एक कणके समान नहीं, जैसे स्वप्नके पर्वतके एक अणुके समान नहीं, तैसे विचाररूपी तराजूकरके तौलिये तौ परमार्थसत्ताविषे कछु सत्यता इनकी नहीं पाईजाती, दृष्ट भी आते हैं, परंतु आत्मसत्ताते इतर कुछ हुआ नहीं, आत्मसत्ताही इसप्रकार भासती है, इसीका नाम स्वयंभू मनु कहते हैं, इसीको विराट् कहते हैं, इसीको जगत् कहते हैं, जगत् अरु विराविषे भेद कछु नहीं, वास्तवते आकाशरूप है, सनातन भी इसीको कहते हैं, रुद्र इंद्र उपेंद्र पवन मेघ पर्वत जल जेते कछु भूत हैं, सो तिसका वपु है ॥ हे रामजी ! आदिवपु जो इनका चिन्मात्ररूप हैं, तिसविषे चैत्यता कारकै अपना अणु जैसा वपु देखता हैं; जैसे तेजका कणका होता है, तिस तेज अणुते चैत्यताकारकै क्रमकार अपना बड़ा शरीर जगरूप देखत भया, जैसे स्वप्नविषे कोऊ पुरुष आपको पर्वत देखे, तैसे आपको विरारूप देखत भया है, जैसे पवनके दो रूप हैं, चलता है तो भी पवन हैं, नहीं चलता तौ भी