पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६०७

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(१४८८) यौगवासिष्ठ । णविषे जल हुआ कछु नहीं, अरु हुएकी नाईं भासता है, तैसे ब्रह्मसताविषे जगत् उपजेकी नाई भासता हैं, अरु उपजा कछु नहीं, केवल अपने आपविषे स्थित है, शिला जठरकी नाईं स्थित है, अर्थ यह जो संकल्पविकल्पते रहित चेतनरूप चैत्यते रहित चिन्मात्र तेरा स्वरूप है, ताते कलनाको त्यागिकार अपने स्वभावविषे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विराट्शरीरवर्णनं नाम शताधिकैकनवतितमः सर्गः ॥ १९१ ॥ शताधिकदिनवतितमः सर्गः १९२. जगद्गह्मप्रलयवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! प्रथम प्रलयका प्रसंग बहुरि श्रवण करु, मैं ब्रह्मपुरीविषे ब्रह्माके पास बैठा था, जब नेत्र खोलकार, देखा तब मध्याह्नका समय है, जो दूसरा सूर्य पश्चिम दिशाविष आनि उदय हुआ है, तिसका बड़ा प्रकाश देवा, मानो संपूर्ण तेज इकट्ठा हुआ है, अरु बड़ा अग्निकी नई प्रकाश हुआ, अरु बिजुरीकी नाईं स्थित हुआ तिसको देखकर मैं आश्रयवान् हुआ, ऐसे देखता था, तो एक अपर सूर्य उदय हुआ, बहार उत्तर दिशाकी ओर अपर सूर्य हुआ, इसीप्रकार दृश सूर्य आकाशविषे प्रगट हुए, अरु एक प्रथम था, एकादश सूर्य उदय होकर तपाने लगे, द्वादशम वडवाग्नि समुद्रते उदय भई, तिसते एक सूर्य निकसा, द्वादश इकडे होकार विश्वको तपाने लगे ॥हे रामजी । प्रलयके तीन नेत्र अनि उदय हुए, एक नेत्र सूर्य, दूसरा नेत्र वडवाग्नि, तीसरा-अग्नि बिजुरी भई, तीनों नेत्र विश्वको जलाने लगे, दिशा सब रक्त भई अट अट शब्द होने लगे, नगर वन कंदरा संपूर्ण जलनेलगे; पृथ्वी क्षुब्ध जलने लगी, देवताके स्थान जलि जलि डिगने लगे, पर्वत जलिकारि श्याम हो गये, ज्वालाके कणके निकसिकार पातालको गए,पाताल जलने लगा, समुद्र जलिकार सूख गये, चिकड हो रहा, हिमालयपर्वत बर्फका जल होकर जलने लगा, जैसे दुर्जनोंके संगकार साधुका हृदय