पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

जगइह्मप्रलयवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( १४८९) तप्त होता है, जब इसीप्रकार बड़ी अग्नि प्रज्वलित भई तब मुझको भी तप्त आनि लगी, तब मैं वहाँसों दौडिकारे अध जाय स्थित भया, तहाँ मैं देखत भया कि, अस्ताचल पर्वत जलता हुआ उदयाचल पर्वतके पास आय पडा, मैदराचल पर्वत जलिकार गिरने लगा, सुमेरु गिरने लगा, अग्निकी ज्वाला ऊर्ध्वको जावे, भडे भड शब्द करै ॥ हे रामजी इसप्रकार संपूर्ण विश्व जलने लगा, बड़ा क्षोभ आनि उदय हुआ, जहाँ कछु रस था, सो सब विरसताको प्राप्त भया । हे रामजी । जिसको अज्ञानी रस कहते हैं, सो सब विरस हैं, परंतु अपने अपने कालविणे रससंयुक्त इष्ट आते हैं, तिसकालविषे मुझको ऐसे भासै जैसे जली हुई बल्ली होती, तैसे सब विरस इष्ट आवें॥हे रामजी ! इसप्रकार सब विश्व जलता देखा, परंतु ज्ञानकार जिसका अज्ञान नष्ट हुआ है, सो सुखी दृष्ट आवै, अपर सब अग्निविषे जलते दृष्ट आए, अरु बड़े भयानक शब्द होवें, अरु सदाशिवका जो कैलास पर्वत है, तिसके निकट अग्नि आती थी, तब सदाशिवने अपने नेत्रसों अग्नि प्रगटकरी, तिसकार बडा क्षोभ हुआ, ब्रह्मांड जलने लगा, तब महापवन आनि चला, बडे बडे जो पर्वत थे सो उड़ने लगे, जैसे तृण उडते हैं, अरु जो स्थान जले थे तिनकी अँधेरी होकार पुरियोंके स्थान भी उड़ते जावें, बडा क्षोभ आनि उदय भया, अरु इंद्रादिक देवता अपने स्थानको त्यागिकारै ब्रह्मलोकको चले जावें अरु बड़े मेघ जलकार जो पूर्ण थे सो सूखकार जलने लगे, चलको त्यागते भए, अरु कल्परूपी जो पुतली थी सो नृत्य करने लगी, जले स्थानोंते जो धूम्र निकसता है सो तिसके कैसा है, अरु प्रल यशब्द उसका बोलना है, बडा पवन चला, पर्वत जलकार उडने लगे, सुमेरु आदिक पर्वत तृणोंकी नई उडते जावें, जीवको बड़ा कष्ट प्राप्त हुआ, ऐसा दुःख कहनेविषे नहीं आता ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणकरणे जगद्गह्मप्रलयवर्णनं नाम शताधिकद्विनवतितमः सर्गः ॥ १९२॥