पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६०९

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(१४९०) यौगवासिष्ठ । शताधिकत्रिनवतितमः सर्गः १९३. ब्रह्मजलमयवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी | अग्निकार स्थान सब जलिगये, तिसके उपरांत पुष्कल मेघ प्रलयके गर्जने लगे, अरु वर्षने लगे, प्रथम मूसलकी नाई फेरि स्तंभकी नई धारा वरपैं, बहुरि नदीकी वर्षा करने लगे, बहुरि महानद वर्षने लगे, जिनकी गंगा यमुना नदी लहरी हैं, सब स्थान शीतल होगये, जैसे अज्ञानी तीन तापकार जला हुआ संतके संगकार शीतल होता है, तैसे शीतल भये ॥ हे रामजी । ऐसा जल चढा जिसकरि सुमेरु आदिक पर्वत नृत्य करें, जैसे समुद्रविषे झाग होती है, तैसे हो गए, बहुरि कैसे लगे जैसे जलचर होतेहैं, तैसे पर्वत बहते जावें ॥ हे रामजी । ऐसे जल चढे जो कहनेविषे नहीं आता, बड़े बड़े स्थान बहते जावें, देवता सिद्ध गंधर्व बहते जावें, जिनको अज्ञानी परमार्थ जानकार सेवन करते हैं, सो भी बहुत दृष्ट आए, जैसे कोऊ पुरुष कंटके अंधे कूपविषे गिरते दुःख पावें, तैसे दृष्ट आवै, अरु मुझको सब ब्रह्म दृष्ट आवै, जब संकल्पकी - ओर देखौं तब महाप्रलय दृष्ट आवै, मेघ गर्जते जटा होकार दृष्ट आवै, अरु ब्रह्मलोकपर्यंत जल चढि गया, मैं देखकर आश्चर्यको प्राप्त भया । . इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ब्रह्मजलमयवर्णनं नाम शताधिकत्रिनवतितमः सर्गः ॥ १९३॥ शताधिकचतुर्नवतितमः सर्गः १९४. वासनाक्षयप्रतिपादनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! ब्रह्माका जगत् मैं देख तो भी जलमय हो गया, जलते इतर कछु न भासे, सब शून्यही भासै, दिशा कोऊ न भासै, न ऊध्र्व न अधो न मध्य भासे, न कोङ तत्त्व भासै, न को पर्वत भासै, संपूर्ण जलही भासै, न कोऊ देवता न पशु पक्षी भासे,