पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६१

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योगवासिष्ठ।

समेटि ले गया है, अरु षट‍्वार परशुराम रेणुका माताका पुत्र हुआ है, बहुतसृष्टिके पाछे हुआ है, जब दैत्य क्षत्रियके गृहविषे उपजने लगे तिस निमित्त विष्णुजी परशुरामका अवतार लेत भये बहुत काल युगके व्यतीत हो गए हैं॥ हे मुनीश्वर! एक सृष्टि ऐसी भई है, कि अगलेते विपर्ययरूप शास्त्र अझ पुराणके अर्थ अपर प्रकारके अरु एक कल्पविषे अपरही पाठ, अपरही युक्ति, अपरही अर्थ,काहेते जो युग युग प्रति अपरही पुराण होते हैं कई देवता कहाते हैं कई ऋषीश्वर मुनीश्वर कहाते हैं, अपर कथा इतिहास बहुत स्मरणमें आते हैं, वाल्मीकिने द्वादशवार रामायण कीनी हैं, सो विस्मरण हो गया है, जगविषे दो वार महाभारत व्यासने किये हैं, अरु यह जो व्यासनामा जीव है॥ हे मुनीश्वर! इसप्रकार आख्यान कथा इतिहास शास्त्रजो जो हुए हैं, सो मुझको बहुत स्मरणमें आते हैं॥ हे साधो! दैत्यनके मारनेनिमित्त विष्णुजीने युग युग प्रति अवतार धरे हैं, एकादश वार मुझको रामजी स्मरण आते हैं, अरु वसुदेवके गृहविषे पृथ्वीके भार उतारनेनिमित्त कृष्णजीने सोलह वार अवतार लिये हैं, सो मुझको स्मरण है, तीनवार नरसिंह अवतार धरिकरि हिरण्यकशिपुको मारा है॥ हे मुनीश्वर! इसप्रकार मुझको अनेक सृष्टि स्मरण आती हैं, परंतु सबही भ्रममात्र है, कछु उपजती नहीं, जब आत्मतत्त्वविषे देखता हौं, तब सृष्टि कछु नहीं भासती, सब सत्तामात्र है, जैसे जलविषे बुबुदे उपजिकरिलीन हो जाते हैं, तैसे आत्माविषे मनके फुरणेकरि कई सृष्टि उपजतीं हैं, अरु लीन हो जाती हैं, तिस फरणेकरि कई सृष्टि देखी हैं, कई सदृशही उपजती हैं, कई अर्धसदृश कई विपर्ययरूप उपजती हैं॥ हे मुनीश्वर! कई सृष्टिविषे उनही जैसे आकार अरु उनही जैसे कर्म आचार होते हैं, कई मन्वंतर मन्वंतप्रति अपरही अपर सृष्टि होती हैं, किसीविषे ऐसा होताहै, पुत्र पिता हो जाता है, शत्रु मित्र हो जाता है, बांधव अबांधव अरु अबांधव बांधव हो जाते हैं, इसप्रकार विपर्यय होते दृष्ट आये हैं; हेमलतावान् कबहूं इसही कल्पवृक्षपर आलय होता है, कबहूँ मंदराचलविषे, कबहूँ हिमालयपर्वतविषे कबहूँ मालय पर्वतविषे हमारा आलय होता है, इसी