पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६१२

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जगन्मिथ्यात्वप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१४९३) क्यों है तौ जो कछु भासता है, सो वही अपने आप भावविषे स्थित है ॥ हे रामजी । भावते उत्थान होनेका नाम बंधन है, अरु उत्थान मिटनेका नाम मोक्ष है । हे रामजी । नेत्रके खोलने अरु बूंदनेविषे भी कछु यत्न है, अरु मुक्त होनेविषे यत्न कछु नहीं, जो वृत्ति बहिर्मुख हुई, तो बंधन हुआ, अरु वृत्ति अंतर्मुख भई तौ मुक्त भया, इसविषे क्या यत्न है, ताते निर्वासनिक सुषुप्तिकी नाईं स्थित होहु, जब अहं संवेदन फुरता है तब मिथ्या जगत् सत्य हो भासता है, आगे जो इच्छा है सो करहु, जब अहं उत्थानते रहित होवैगा, तब परमनिर्वाणपदको प्राप्त होवैगा, जहाँ एक अरु दो कल्पना कोऊ नहीं, परमशांत निर्विकल्प पदको प्राप्त होवेगा ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे वासनाक्षयप्रतिपादनं नाम शताधिकचतुर्नवतितमः सर्गः ॥ १९४ ॥ शताधिकपंचनवतितमः सर्गः १९५. जगन्मिथ्यात्वप्रतिपादनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी। वह ब्रह्माजी अंतर्धान हो गया, जैसे तेलविना दीपक निर्वाण हो जावै, जब ब्रह्माजी ब्रह्मपदविषे निर्वाण हुआ, तब द्वादशसूर्य बहुर ब्रह्मपुरीको जलाने लगे, जब संपूर्ण ब्रह्मपुरीजलिगई तब वह सूर्य भी ब्रह्माकी नाईं पद्मासन कारकै स्थिर भये, जैसे तेलविना दीपक निर्वाण होता है, तैसे द्वादश सूर्य भी निर्वाण हो गये। हे रामजी ! जब द्वादश सुर्य निर्वाण हुये, तब समुद्र उछले ब्रह्मपुरीको आच्छादि लिया, जैसे रात्रिविषे अंधकार नगरको आच्छादि लेता हैं, तैसे ब्रह्मपुरीको आच्छादि लिया, बड़े तरंग उछले; पुष्कर मेघ भीतरगकार छेदे गए जलरूप हो गए । हे रामजी तब एक पुरुष आकाशते निकसा, सो मुझको दृष्ट आया, महा भयानक श्यामरूप उग्र आकाशको भी तिसने आच्छादि लिया, कृष्णमूर्ति मानो रात्र कल्पपर्यंत इकट्ठी होकार तिसका रूप आनि स्थित हुआ है, अरु मुखते ज्वाला निकसती है, अरु शरीरका बड़ा प्रकाश मानो कोटिसूर्य स्थित