पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६१३

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(१४९४) योगवासिष्ठ । हैं, बिजलीका प्रकाश इकट्ठा हुआ है,अरु तिसके पंचमुख हैं, देश भुजा हैं, अरु तीन नेत्र हैं, मानौ तीनों सूर्य चमत्कार करते हैं, अरु इथिविषे त्रिशूल हैं, अरु आकाशकी नाईं मूर्ति धारी है, जैसे क्षीरसमुद्र मथनेको भुजा बड़ी कार विष्णुने शरीर धारा था, अरु क्षीरसमुद्रको शौभाया था, तैसे नासिकाके पवनकारे समुद्रको क्षोभावत भया, जैसा आकाश बड़ा वपु है, तैसाही स्वरूप धरा, मानौ प्रलयकालके समुद्र मूर्तिधारिके स्थित हुए हैं, मानौ सर्व अहंकारकी समष्टिता स्थित भई हैं, मानौ महाप्रलयकी वडवाग्नि मूर्ति धारिके आनि स्थित भई है, मानो प्रलयकालके मेघ मूर्ति धारिके स्थित भये हैं, ॥ हे रामजी ! मैं जानता भया कि, यह महारुद्र है, तिसके हाथविषे त्रिशूल है, अरु तीन नेत्र हैं, पंच मुख हैं; ताते रुद्ध है, ऐसे जानिकार मैं प्रणाम किया ॥राम उवाच॥ हे भगवन् ! उसका भयानक रूप क्या था ? अरु रुद्र किसको कहिये ? अरु बडा आकार क्या था ? दुश भुजा अरु पंच मुख क्या थे ? तीन नेत्र क्या थे ? हाथविष त्रिशूल क्या था? अरु किसका भेजा आया था १ क्या करता भया १ अरु कहाँ गया १ अरु एकला था अथवा अपर भी कोऊ साथ था ? अरु श्याम मूर्ति क्यों था ? ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । विषमविषे परिच्छिन्न जो अहंकार है, सो त्यागने योग्य है, अरु समष्टि अहंकार सेवने योग्य है, सर्व आत्मप्रतीतिका नाम समष्टि • अहंकार है, तिसका नाम रुद्र है, अरु कृष्णमूर्ति इसनिमित्त है, जो आकाशरूप है, जैसे आकाशविषे नीलता है, तैसे उसविषे कृष्णता है, अरु सर्व जो जीव अपने अहंकारको त्यागिकारि निर्वाण हुए तिनकी समष्टिता होकार रुद्ररूप भासै, इसीते उग्र था, अरु पंचमुख ज्ञानइंद्वियोंके समष्टिता अरु दश भुजा कर्म इंद्रियां, पंचमुखकी समष्टिता अरु राजस तामस सात्विक तीन गुण तीनों नेत्र हैं, अथवा भूत भविष्य वर्तमान् अथवा ऋग् यजु साम तीनों वेद नेत्र हैं, अथवा मन बुद्धि चित्त तीनों नेत्र थे. ओंकारकी तीन मात्रा उनके नेत्र हैं, आकाशरूपी वधु था, अरु त्रिलोकीरूपी हांथविषे त्रिशूल थे, अरु चितसंविते फुरा था; तिसीका भेजा आया था बहार तिसीविषे लीन होवैगा, केवल आका