पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६१५

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' (१४९६) , योगवासिष्ठ । हैं, अरु पृथ्वी भागके आश्रय हैं ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! पृथ्वी आदिक तत्त्व सहित ब्रह्मांड किसके आश्रय है, निराधार किसके आश्रय स्थित हुआ है तिनका चलना ठहरना कैसे हुआ, नाश कैसे हुआ यह कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच।। हे रामजी ! तू कहु आकाशविर्ष मेघ किसके आश्रय होते हैं, सूर्य चंद्रमा किसके आश्रय होते हैं, जैसे यह संकल्पके आश्रय हैं, तैसे ब्रह्मांड भी संकल्पके आश्रय है, जैसे स्वप्नकी सृष्टि होती है, तौ तु देखै, जो किसके आश्रय हैं, संकल्पहीके आश्रय है क्यों ? अरु संकल्प आत्माके आश्रय है, तैसे यह जगत् अरु तत्त्व भी आत्मसत्ताके आश्रय स्थित हैं अरु इनका ठहरना गिरना भी आत्माके आश्रय हैं, जैसे आदिचित्त स्पंद होकर नीति हुई है तैसेही है, इसप्रकार गिरना हैं, इसप्रकार ठहरना है, इसप्रकार इसका नाश होना है, इसप्रकार रहना है, तैसेही परम स्वरूपते इतर कछु नहींकेवल भ्रममाव है, जैसे सूर्यको किरणोंविषे जलाभास होता है, तैसे आत्माविषे जगत् भासता हैं, चित्त संविदही जगदाकार हो भासती है, जैसे आकाशविषे नीलता भासती है, तैसे आत्माविषे जगत् भासता है,जैसे तलवारविषे श्थामता भासती है, तैसे आत्माविषे जगत है, जैसे नेत्रदोषकार आकाशविषे मोती भासते हैं, तैसे आत्माविषे जगत् भासता है, अरु मिथ्या जगतकी संख्या कारये तो नहीं होती, जैसे सूर्यकी किरणोंका आभास अरु रेतके कणकेविषे संख्या नहीं होती तैसे जगतकी संख्या नहीं होती, अरु वास्तवते कछु बना नहीं, अजातजात है, जैसे स्वमविषे अनहोतीसृष्टि भासती, तैसे यह जगत् भासता है, ताते दृश्यको मिथ्या जानकार जगत्की वासना त्यागहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाणप्रकरणे जगन्मिथ्यात्वप्रतिपादनं नाम शताधिकपंचनवतितमः सर्गः ॥ १९५॥