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भुशुण्डोपाख्याने संकल्पनिराकरणवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

प्रकार वन वृक्ष वल्लीऊपर हो जाता है, कबहूँ इसी कल्पवृक्षऊपर हो जाता है, अब तौ बहुत काल हुवा है, जो इसी कल्पवृक्ष पर होता है, अरु इसी आलयविषे हमारा निवास होता है, जब सृष्टि नाश हो जाती है, तब भी मेरा यही शरीर रहताहै, मैं आसन लगायकरि अपनी पुर्यष्टकको ब्रह्मसत्ताविषे स्थिति करता इसी कारणते मुझको बहुरि यही शरीर प्राप्त होता है॥ हे मुनीश्वर! यह जगत् सब संकल्पमात्र है, जैसा संकल्प फुरता है, तैसा आगे जगत् हो भासता है, यह जगत् सत्य भी नहीं, असत्य भी नहीं केवल भ्रमरूप है, तिल जगम्द्रमविषे अनेक आश्चर्य दृष्ट आते हैं, पिता पुत्र हो जाता है, मित्र शत्रु हो जाता है, स्त्री पुरुष हो जाती हैं, पुरुष स्त्री हो जाता है, अनेकवार ऐसे होते हैं, कबहूँ कलियुगविषे सत‍्युग वर्त्तने लगता है, सत‍्युगविषे कलियुग वर्त्तने लगता है, द्वापरविषे त्रेता, त्रेताविषे द्वापर वर्त्तने लगता है, अदृश्यही वेदविद्याके अर्थ होतेहैं, नानाप्रकारके आश्चर्य भासते हैं॥ हे मुनीश्वर। सहस्र चौकड़ी युगकी व्यतीत होती हैं, तब ब्रह्माजीका एक दिन होता है, सो दो दिन ब्रह्मा समाधिविषे जुड़ रहा, सृष्टि शून्यही रही, यह भी स्मरण आता है, अपर भी कई देश क्रिया विचित्ररूप चित्त आते हैं, क्या क्या कहौं॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणेचिरातीतवर्णनं नाम एकोनविंशतितमः सर्गः ॥१९॥



विशतितमः सर्गः २०.

भुशुण्डोपाख्याने संकल्पनिराकरणम्।

वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! इसप्रकार जब भुशुण्डने कहा, तब मैं बहुरि जिज्ञासाके अर्थ पूंछत भया, कि हे पक्षियोंके ईश्वर। तू चिरपर्यंत जगतविषे व्यवहार करता रहा है तेरे शरीरको मृत्युने किसनिमित्त ग्रास न किया॥ भुशुण्ड उवाच॥ हे मुनीश्वर! तू सर्व जानता है, परंतु ब्रह्मजिज्ञासा करिकै पूँछता है, ताते जैसे भृत्य टहलुआ वेदार्थ मानि करि गुरुके आगे कहते हैं तैसे मैं आज्ञा मानिकरि कहता