पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( १५०३) योगवासिष्ठ । होवे, तब तिस ब्रह्मसत्ताको प्राप्त होवे, अरु बोध अबोध विधिनिषेध वही हैं, जैसे जल अरु समुद्रकी संज्ञा कही है, अरु तरंग शब्द कहनेकरि विलक्षण भासता है, जब जल तरंगबुद्धिको त्यागै, तब केवल समुद्ररूप है, तैसे यह जीव जब अपने जीवत्वभावको त्यागै,तब आत्मरूप ससुद्रको प्राप्त होवै, जीवत्वका अर्थ यह जो जन दृश्यका संबंध त्याग करेगा, तब आत्मा होवैगा । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अंतरोपाख्यानवर्णनं नाम शताधिकसप्तनवतितमः सर्गः ॥ १९७ ॥ शताधिकाष्टनवतितमः सर्गः १९८. पुरुषप्रकृतिविचारवर्णनम् । ६ वसिष्ठ उवाच ॥ ॥ हे रामजी ! तुझको जो चिदाकाश कहा है, सो परम चिदाकाश है, अरु सदा अपने आपविषे स्थित है । हे रामजी । शुद्ध चिदाकाश मैं तेरे ताईं कहा है, सोई यह रुद्ररूप है,सोई नृत्य करता था, तहाँ आकार कोऊ न था, केवल चिद्धन सत्ता थी सोई ऐसे होकर किंचन होती थी ॥ हे रामजी ! जब आत्मदृष्टिकार देखता था, तबमेरे ताई चिदाकाशरूपही भासा था ॥ हे रामजी । मेरे जैसा होवे सोई तैसा रूप देखै, अपर नहीं देखिसकै ॥ हे रामजी । जिसका नाम कल्पात कहाता है, सोई रुद्र अरु भैरव है, वह कल्पांतकी मूर्ति नृत्य कारकै अंतर्धान हो गई, अरु वास्तवते क्या रूप था ? मायामात्र था, चेतनसत्ताके आश्रय पड़े नाचते हैं। हे रामजी । जैसे सोनेविषे भूषण हैं, परंतु सोनेविना नहीं होते, तैसे चेतनता किंचनकरि जगत् भासता है, बहुर वही प्रमादकार अधिभूत होजाता है, अरु वास्तवते शुद्ध चिदाकाशरूप है, चेतनताकारकै वही जगतरूप हो भासता है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! प्रथम तुम आत्मतत्त्व अद्वैत कहा, यह जगत प्रमादकारकै नाम रूप कल्पित है, अरु जो है तौ कल्पके अंतविषे नाश हो जाता है,अद्वैतसत्ता रहती है, बहुरि कहा, चैत्यताकारकै जगवरूप भासता