पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६२४

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पुरुषप्रकृतिविचारवर्णन-निर्वाणप्रकरण उत्तरार्द्ध ६. (१५०५) काली है ॥ तिसकेविषे अरु आत्माविषे अरु शिवरूपविषे अरुकालीविषे भेद कछु नहीं, जैसे पवन अरु स्पंदविषे भेद कछु नहीं, अग्नि अरु उष्णताविषे भेद कछु नहीं ॥ तैसे चित्तकला अरु आत्माविषे भेद कछु नहीं, जैसे पवन जब निस्पंद होता है, तब तिसका लक्षण नहीं होता, अवाचकरूप होता है, अरु जब स्पंद होता है; तिसका लक्षण भी होता है, तिसविषे शब्द प्रवेश करता है, तैसे चित्तशक्तिकार तिसका लक्षण होता है, आगे तिसके अनेक नाम हैं, तिसीका नाम स्पंद है, इच्छा हैं, तिसीको चैत्योन्मुखत्वकरि वासना कहते हैं, इसीके स्वादकी इच्छाते जब चित्त सँविविषे वासना फुरी, तब तिसका नाम वासना करनेवाला वासक कहता है, बहुरि आगे दृश्य होती है, जब त्रिपुटी हुई वासना वासक वास, तब वासकको जीव कहते हैं, जीवत्वभाव लेकर स्थित होती है, जब यह इच्छा इसको होती हैं कि, मैं जीव हौं, मेरा नाश कदाचित् न होवै, इस इच्छाकारि जीव कहता हैं, ऐसी संज्ञा चिच्छक्तिकी होती है, सो स्पंदविषे होती है, अरु शिवतत्त्व सो अफ़र है, अचैत्यशक्तिविषे फुरणेकी नाई स्थित है, जैसे सूर्यको किरणोंविषे जल है नहीं,, हुएकी नाई भासता है, तैसे यह जगत् है नहीं अरु हुएकी नाईं भासता हैं, तिसविषे यह संज्ञा देते हैं, काली जो परमात्माकी क्रियाशक्ति हैं, सो प्रथम तौ कारणरूप प्रकृति है, सब तिसते हैं, इसीते प्रकृतिरूप है, विकृति नहीं, अर्थ यह. किसका कार्य नहीं, अरु महदादिक पंचभूत महत्तत्त्व अरु बुद्धि अहंकार सप्त प्रकृति विकृति हैं, अर्थ यह, जो कार्य भी हैं, कारण भी हैं कार्य आदिक देवीके हैं, अरु कारण षोडश हैं, पंच ज्ञानइंद्रियां, पंच कर्मइंद्रियां, पंच प्राण, एक मन इनके कारण सप्तदश हैं, अरु षोडश हैं सो विकृत हैं, अर्थ यह कि कार्यरूप हैं, कारण किसीका नहीं, अरु पुरुष है जो परमात्मा, सो अद्वैत अचित्त चिन्मात्र है; न किसीका कारण है, न कार्य हैं, अपने आपविषे स्थित है, ताते जेते कछु द्वैतकलना हैं कारण कार्यरूप, सो सब चित्तशक्तिविषे स्थित हैं, जब यह निस्पंद होती है, तब शिवपद तत्त्वविषे निर्वाण हो जाती है, कारणकार्यरूपी भ्रम सब मिटि