पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६२५

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यौगवासिष्ठ । जाता हैं, केवल आकाशवत् शेष रहता है, सो शुद्ध है, अद्वैत है, अचैत्य चिन्मात्र सदा अपने आप भावविष स्थित है, तिसकी क्रियाशक्ति स्पंदरूप एती संज्ञा हैं, प्रथम तौ सबका कारणरूप प्रकृति है, अरु सोख हैं, अर्थ यह जैसे वडवाग्नि समुद्रको सुखावती है, तैसेही जगतको सुखाती है, अरु सिद्धि है अर्थ यह कि सिद्ध आश्रयभूतकार सेवते हैं, अरु जयंती है अर्थ, यह कि, जय है जिसकी अरु चंडिका है, अर्थ यह - कि, जिसके क्रोधकार जगत्प्रलय होती है, अरुभय पाता है, अरु बीर्य है, अर्थ यह कि, जिसका अनंत वीर्य है, अरु दुर्गा है, अर्थ यह कि, इसका रूप जानना कठिन है, अरु गायत्री है, अर्थ यह कि, जिसके पाठकार संसारसमुद्रते रक्षा होती है, अरु सावित्री हैं, अर्थ यह कि,जगचुकी पालना करती है, अरु कुमारी है, अर्थ यह कि, कोमल स्वभाव है, अरु गौरी है, अर्थ यह कि, जिसके गौर अंग हैं, अरु शिवा है, अर्थ यह कि, जिसका शिवके डावे अंगविषे निवास है, अरु विजया है, अर्थ यह कि, सब जगत्को जीति रही है, अरु स्वशक्ति है, अर्थ यह कि, अद्वैत आत्माविषे जिसने विलास रचा है, अरु इंद्रसारा है, अर्थ यह कि, उकार हैं इंद्र आत्मा तिसका सार अर्धमात्रा है, तीनों मात्रा अकार उकार मकारका अधिष्ठान है । हे रामजी ! राजसी तामसी सात्त्विकी तीन प्रकारकी क्रिया होती हैं, सो इसीते होती हैं, यह सब संज्ञा क्रिया शक्तिकी कही है, अब शस्त्र अरु बढना घटना तिसका सुन ॥ हे रामजी! नित्य जो करती थी सो क्रिया है, सो क्रिया सात्त्विकी राजसी तामसी तीन प्रकारकी हैं, गुसल जो था सो ग्राम पुर नगर हैं, अंग तिसके सृष्टि है, जब शिवते व्यतिरेक होती थी, तब अंग बहुत हो जाते थे; अरु जब शिवकी ओर आती थी, तब सृष्टिरूप अंग थोरे हो जाते थे, अरु जब शिवको आय मिलती थी तब शिवही होतीथी, सृष्टिरूपी अंग कोऊ न रहते थे, यह तो आत्माकी काली शक्तिकी क्रियाका वर्णन तुझको सुनाया है, अब शिवका वर्णन सुन, वाणीते अतीत है, तथापि कछु कहता हौं, परम शुद्ध है, निर्मल अच्युत हैं, तिसविषे कछु हुआ नहीं, क्रियाशक्तिके ऊरणेकार जगत हो भासता है, जब अपने अधि