पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६२७

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- (१५०८) यौगवासिष्ठ । विधिनिषेध पदार्थ हैं, आकाश पर्वत समुद्र वन जगत् तीर्थ कर्म बंध मोक्षगुरु अरु शास्त्र युद्ध, शस्त्र आदिकजो भासते हैं, सो सब चिदाकाश ब्रह्मरूप हैं, वास्तव इनका होना ब्रह्मते भिन्न नहीं, सर्व प्रकार सर्वदा काल आत्मा अपने आपविषे स्थित है, शुद्ध अद्वैत निराकार है, निर्विकार ज्योंका त्यों हैं, जगत् तिसविषे को नहीं उपजा, सब जगत् आत्माविषे क्रियाशक्ति रची हैं, सो मायाकालविर्षे सत्य है, वास्तवते कछु नहीं, जैसे किसी पुरुषको स्वप्नविषे सृष्टि भासती हैं। तिसके शरीरको कोङ हिलावे तो वह नहीं जागता, जो कछु सृष्टि होती तौ, हिलावनेकार को स्थान गिर पड़ता है, इसीते नाश किसीका नहीं होता, वास्तव कछु नहीं ॥ हे रामजी । वह सृष्टि उसके चित्तस्पंदविणे स्थित है, प्रत्यक्ष अथाकार होती है, परंतु जबलग निद्रा हैं, तबलग सृष्टि है, जब निद्रा निवृत्त भई; तब स्वप्नसृष्टि नहीं भासती, तैसे यह सृष्टि कछु वास्तव नहीं, अज्ञान करिकै चिच्छक्तिविषे भासतीहै। हे रामजी ! जेते कछु पदार्थ भासते हैं, सो चित्तके फुरणेविषे भासते हैं, जिसका संकल्प शुद्ध होता है, तिसके मनोराज्यकी सृष्टि,देश कालकार प्रत्यक्ष अनि होती है, तौ संकल्परूप होती है, बना कछु नहीं, जब संकल्प ऊरता हैं, तब संकल्पके अनुसार सृष्टि शासतीहै, ताते संकल्परूप हुई, क्यों अद्दष्ट पदार्थ होता है, जो उसकी सत्यता हृदयविषे होती है, तब इसका अर्थ हृदयविषे अनुभव होता है, जैसे परलोक अदृष्ट है, जब उसकी सत्यता हृद्यविषे होती है, तब उसका राग द्वेष हृदयविषे फुरता है, काहेते जो संकल्पविष उसका भाव खड़ा है, तैसे जबलग चित्त स्पंद फुरता है, तब लग जगत् सब खडा है, जब चित्त निस्पंद होताई, तब जगत्की सत्यता नहीं भासती ॥ हे रामजी । जैता कछु जगत् भासता है, सो सर्व क्रियाशक्तिने आत्माविषेरचा है, जबलग यह काली क्रियाशक्ति शिवते व्यतिरेक होती है, तबलग नानाप्रकारके जगत् रचती है, अरु क्षोभको प्राप्त होती हैं, अरु जब शिवकी ओर आती है, तब शतरूप हो जाती है, बहार प्रकृतिसंज्ञा उसकी नहीं रहती, अद्वैत तत्त्वविर्षे अद्वैतरूप हो जाती है,