पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६२९

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संद करती हैं, जसंज्ञा भी नहीं चित्तशति यौगवासिष्ठ । यह जो परमेश्वरी काली शक्तिहै, सो तिसको मिलिकरि शांति कैसे भई सो कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । देवी परमात्माकी इच्छाशक्ति हैं, अरु जगन्माता इसका नाम है, जबलग शिवतत्त्वते व्यतिरेक होती हैं; तबलग जगत्को रचती हैं, जब अपने अधिष्ठानकी ओर आती है, जो नित्यतृप्त है अरु अनामय है, निर्विकार है, परमशतिरूप द्वैतभाचते रहित है, तब परमशाँतिको प्राप्त होती हैं, प्रकृतिसंज्ञा इसकी जाती रहतीहै, जैसे नदी जबलग समुद्रको नहीं प्राप्त भई तबग दौडतीहै,अरु शब्द करती है, जब समुद्रको मिली तब शब्द करना अरु दौडना नष्ट हो जाताहै, अरु नदीसंज्ञा भी नहीं रहती समुद्रको मिलिकार परम गंभीर समुद्ररूप हो जाती है, तैसे जबलग चित्तशक्ति शिवते व्यतिरेक होती है, तबूलग जगद्धमको रचती है, जब शिवतत्त्वको मिली तब शिवरूप होजाती है, अरु द्वैतभ्रम मिटि जाता है । हे रामजी ! जब यह चित्तशक्ति शिवपदविषे लीन हो जाती है, तब प्रथम जो देह इंद्रियाँसाथ तहूप भई थी, इंद्रियोंके इष्ट अनिष्टविषे आपको सुखी दुःखी मानती थी, अरु रागद्वेषकर जानती थी, जो नित्यतृप्त अनामय पदके मिलेते सुखदुःखते रहित होती है, काहेते जो अनात्म देह इंद्रियोंकी तद्पता अभाव हो जाती है, अरु आत्मतत्त्वसाथ तदूर होती है, जैसे पत्थरकी शिलासाथ मिलकर खङ्गकी धारा तीक्ष्ण होती है, तैसे चित्त संविद जब आत्मपदविषे मिलती है, तब एक अद्वैतरूप हो जाती हैं, आत्मपदके स्पर्श कियेते अनात्मभावका त्याग करती है, जैसे लोहा पारसके परसते स्वर्ण हो जाता है, बहुरि लोहा नहीं होता, तैसे यह वृत्ति अनात्मभावको नहीं प्राप्त होती, अरु यह चित्तकला तबलग ' विषयकी ओर धावती है, जबलग अपने वास्तवस्वरूपको नहीं प्राप्त भई, जब अपने वास्तवस्वरूपको प्राप्त होती है, तब विषयकी ओर नहीं धावती, जैसे जिस पुरुषको अमृत प्राप्त भया हैं, अरु उसके स्वादका अनुभव भया है, तब वह नीम पान करनेकी इच्छा नहीं करता, तैसे जिसको आत्मानंद प्राप्त भया सो विषयके सुखकी इच्छा नहीं करता ॥ हे रामजी । यह संसारभ्रम चित्तसंविविषे • हृढ सत्य होकर स्थित भया है, अरु संसारके सुखका त्याग