पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६३१

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(१५१२) थौगवासिष्ठ । मेघ शरत्कालविषे नष्ट हो जाते हैं, तैसे रुद्र भी नष्ट हो गया । हेरामजी! तिसकालविषे मुझको तीनों इकठ्ठ शरण रहे एक देवी ब्रह्माकी शत्ति, दुसरी काली शक्ति, तीसरी शिला, तब मैं विचार किया कि, यह स्वप्ननगरवत आश्चर्य था, अपर कछु नहीं तब क्या देखौं कि स्वर्णकी शिलाही पड़ी है। यह श्रेष्ठ शिलाके कोशविषे स्थित थी, तब मैं विचार किया कि, इस सृष्टि शिलाके एक कोशविषे अपर सृष्टि भी होवैगी, काहेते जो सर्व वस्तु सर्व प्रकार सर्व ठौर पूर्ण हैं, ताते इसविषे अपर सृष्टि भी होगी, हे रामजी ! उसविषे मैं सृष्टिको देखने लगा, तब नानाप्रकारकी सृष्टि देखी, जब बोधदृष्टिकार देखौं तब सर्वं ब्रह्म भासै, अरु संकल्पदृष्टिकर देखौं तब आत्मरूपी आदर्शविषे अनंत सृष्टि दृष्ट आवै,जब चर्मदृष्टिकर देखौं तब शिलाही पड़ी है, इसप्रकार मैं शिलाकोशविषे चला, घास तृण विषे सृष्टि भासे, पत्थरविषे फलफूल विषे अनंत सृष्टि दृष्टि आवें, अरु निःसंकल्प आत्मदृष्टिकारि देखौं तब अद्वैत आत्माही भासै ॥ हे रामजी । इसप्रकार मैं अनंत सृष्टि देखता भया, कहूँ ऐसी सृष्टि भासे कि, ब्रह्मा उपजा है, अरु रचना रचनेको समर्थ हुआ है, कहूँ ब्रह्माने चंद्रमा सूर्य उपजाये हैं, अरु काली मर्यादा करी है, अपर कोऊ नहीं उत्पन्न भयो, कहूँ संपूर्ण पृथ्वी आदिक तत्त्व उपजाये हैं, अरु प्राण नहीं हुए, कहूँ समुद्र नहीं उपजे कहूँ आचारसहित सृष्टि दृष्टि आवै, कहूँ चंद्रमा सूर्य नहीं उपजे, अरु कहूँ उपजते हैं, कहूं चंद्रमा शिवते निकसे, नहीं कहूँ क्षीरसमुद्र मंथा नहीं अमृत नहीं निकसा, लक्ष्मी हस्ती घोडा धन्वंतरवैद्य नहीं निकसे, कहूँ नहीं निकसा, अमृतनहीं निकसा, देवता पड़े मरते हैं, कहूँ क्षीरसमुद्र मंथा है, तिसते अमृत निकसा, है, धन्वंतरि वैद्य निकसा है, लक्ष्मी भी निकसी है, कहूँ प्रकाश नहीं होता, कहूँ सदा प्रकाशही रहता है, कहूँ पृथ्वीकेऊपर पर्वतही दृष्ट आवै, अपर कछु नहीं कहूँ इंद्रके वज्रकार पर्वत करते हैं, अरु उडते हैं, कहूँ प्राणीको जरा मृत्यु नहीं होती, कल्प पर्यंत ज्योंके त्यों रहते हैं, कहूँ प्रलय होती है, कहूँ मेघ गर्जते हैं, कहूं संपूर्ण जलही दृष्ट आवै, अपर कछु नहीं, कहूं आकाश दृष्ट आवै, अपर प्राणि कोऊ नहीं, कहूं देवताके युद्ध पड़े होते हैं, कहूं