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(३५१४ ) ' योगवासिष्ठ । अरु मैं भी आगे होऊंगा, परंतु आत्माको विवर्त्त है, जैसे समुद्रते तरंग भी होते हैं, विलक्षण भी दृष्टि आते हैं, परंतु वही रूप हैं, तैसे हमारे सदृश भी हमारे स्वरूपकी मुर्तिवतु बहुरि होवेंगे, परंतु आत्मतत्त्वभिन्न कछु नहीं, संकल्प करिके इतरकी नई विलक्षणरूप भासते हैं, जैसे समुद्रविषे वायुकारे तरंग भासते हैं, तैसे आत्मा संकल्पकारिके जगत्रूप हो भासता है, यद्यपि नानाप्रकार हो भासता है, तो भी दूसरा कछु हुआ नहीं यह जगत् चेतनका बिलास हैं, चित्तके ऊरणेविषे अनंत सृष्टि भासती हैं, जैसे स्वप्नकी सृष्टि बड़े आरंभकार भासती है, परंतु स्वरूपते कछु इतर नहीं, तैसे यह जगत् आरंभ परिणामकार बना कछु नहीं. आत्मसत्ता सदा अपने आपविषे स्थित है।इति श्रीयोगवा निर्वाणप्र• अनंतजगद्रर्णनं नाम शताधिकनवनवतितमः सर्गः ॥१९९॥ हिशततमः सर्गः २००. पृथ्वीधातुवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इसप्रकार देखत भया, बहुरि दृश्य, भ्रमको त्यागकर अपने वास्तवस्वरूपविषे स्थित भया. मैं अनंत हौं नित्य शुद्ध बोध चिदाकाश सर्वदा अपने आपविषे स्थित हौं॥हे रामजी चिन्मात्र आत्मा किसी स्थानविषे संवेदन अभास फुरी है, जैसे अनाजके कोठेते एक मुष्टिकार निकासिये अरु क्षेत्रविषे डारिये उसीते किसी ठौरविषे अंकुर निकसे तैसे चेतनविषे संवेदन फुरी हैं, तिस संवेदनसों जगत उपजा है, जैसे जलके दिये अंकुर निकसि आता है तैसे मेरेविषे सृष्टिका अनुभव होने लगा, अरु मैं जानत भया कि सृष्टि मेरेविषे फुरी है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुम जो आकाशरूप अपने आपविषे स्थित थे तिसविषे सृष्टि तुमको कैसे फुरी १ दृढ बोधके निमित्त मुझको कहौ॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजीवास्तवतौ कछु उपजा नहीं परंतु जैसे हुई है तैसे सुन, मैं जो अनुभव आकाश अनंत था,