पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६३६

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जलरूपवर्णन-निर्वाण प्रकरण, उत्तराई ६. ( १५१७) हैं, कई रुदन करते हैं, कई हाँसी करते हैं, कहूं वृत्ति पसारते हैं, कहूं सुगंधि है; कहूं दुर्गधि है, नदियां चलती क्षोभ करती हैं, देवता अरु दैत्य मेरे ऊपर युद्ध करते हैं, शीतलताकारकै जल मेरे ऊपर बर्फ हो जाता है, इत्यादिक इष्ट अनिष्ट स्थान मैं अपने ऊपर देखत भया, राजसी तामसी सात्त्विकी जेती कछु जीवकी क्रिया होती हैं, सो सबका आधार मैं होता भया, अरु पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण दिशाको संज्ञा होत भई, संवेदन फुरणेकरिके इसप्रकार मैं आपको जानता भया । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अंतरोपाख्याने पृथ्वी| धातुवर्णनं नाम द्विशततमः सर्गः ॥२०० ॥ एकाधिकद्विशततमः सर्गः २०१ • जलरूपवर्णनम् ।। राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुमको जो धारणा कारकै पृथ्वीका अनुभव हुआ, तिसविर्षे जगत् उत्पन्न हुआ, सो संकल्परूपं था, अथवा मनते उपजा था, अथवा अधिभूत रूप था, पृथ्वीते उत्पन्न कैसे हुआ सो कहौ । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी! जेता कछु जगत् है, सो संकरूपरूप है, अरु अधिभूतकी नाई भासता है, सो केवल चिदाकाश अपने आपविषे स्थित है, सो चिदाकाश मैं हौं, न कदाचित् उपजा हौं, न नाश होऊंगा, सर्वदा अद्वैत अचैत्यचिन्मात्ररूप हौ, तिसके संकल्पका नाम मन है, आभासका नाम संकल्प हैं, तिसीका नाम ब्रह्मा है, तिसीका नाम इच्छा है, तिसविषे जगत् स्थित है, सो जगत् आकाशरूप है, बना कछु नहीं ॥ हे रामजी । जिसको सत्य कहता है, अरु असत्य कहता है, सो शुभ अशुभरूप जगत् मनविषे स्थित है, अरु जेते आकार भासते हैं, सो निराकाररूप हैं, आकाशरूप भ्रांतिकारकै पिंडाकार भासते हैं, जैसे स्वप्नविषे शुभ अशुभ पदार्थ भासते हैं, सो निराकार हैं, भ्रांतिकारकै पिंडाकार भासते हैं, तैसे यह जगत् भी