पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

जलरूपवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१५१९) वृक्ष, घास, फूल, फल, गुच्छे, टास, तमालपत्रविषे मैं रस होकार स्थित भया, स्तंभविषे मैंही बल हुआ, समुद्र हुआ, नदियोंके प्रवाह होकर बहने लगा, तिनविषे गड्गड़ शब्द करने लगा, तरंग बुद्बुदे फैनको पसारिकार विलास करत भया, उसके कणके होनेकार मैंही स्थित भया, आकाशविषे मेघ होकार स्थित भया,वष करने लगा, प्राणीको तृप्त करने लगा, तिनविषे रुधिरतेआदि रस होकर मैंही स्थित भया तिनकीनाडीविषे मथन कारकै आपही प्रवेश किया, जैसीजैसी नाडी होतीहै, तैसा तैसा रस होकार स्थित भया, रसे बीज, कफ, पित्त, मूत्र आदिक सब नाडीविषे मैंही स्थित भया,सर्वप्राणीकीजिह्वा अग्रविषेरस होकार स्थित भया, बादको ग्रहण करने लगा, आपने आपको आपकार अरु हिमालय विषे बर्फ होकार स्थित भया । हे रामजी । मैं चेतनही जडकी नाईं स्थित भया, बीज होकार मैंही उत्पत्ति करत भया, प्रलय मेघ होकार मैंही नाश करत भया, इसप्रकार जल होकार स्थावर जंगम जगत् सर्वविषे मैं स्थित भया, अरु सदा अपने आपविषे स्थित होकर अपने स्वरूपको त्यागता न भया, जैसे स्वप्नविषे जगत् अनुभवरूप है, अणुहोता भासता है, तैसे मैं जलरूप होकर जगत्को धारता भया ॥ हे रामजी । इसते आदि लेकर जो नानाप्रकारके स्थान हैं तिनविषे मैं स्थित भया, अरु फूलकी शय्याके ऊपर चिरकालपर्यंत विश्राम करत भया, अरु गंध होकार फूलविषे स्थित भया, मेघ होकर आकाशविषे विचरता भया, गड़ा होकार वर्षा करता भया, पर्वतपर प्रवाहवेगकार उतरता भया, कणके कणके हो गया, समुद्र नदियोंविषे विचरता भया, यह प्रतिभास चिद् अणुविषे मुझको भई ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अंतरोपाख्याने जलरूपवर्णनं नाम एकाधिकद्धिशततमः सर्गः ॥ २०१॥ -- - - -- -