पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६३९

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यौगवासिष्ठ । ( १९२०) • द्विशताधिकद्वितीयः सर्गः २०२. अंतवाहकचिदचिद्वर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जलके अनंतर मैं तेजकी भावना करी, अर्थ यह कि तेजको धारा तब मेरे एते अंग उदय भये, चंद्रमा, सूर्य, अग्नि इन अंगकार जगतकी क्रिया सिद्ध होने लगी, जैसे राजाके अंग अनुचर हरकारे होते हैं, जहां तमरूपी चोरको दीपकरूपी हरकारे मारते हैं, आकाशरूपी जो मैं हौं, तिसके कंठविषे तारेरूपी माला पडी। है, सूर्य होकार मैं जलको सोखने लगा, अरु देशों दिशाको मैं प्रकाशता भया, आकाश जो ऊध्र्वताकार श्याम भासता है, सो मेरे निकट प्रकाशमान होरहता है, सब जगतविषे मैं पसर रहा हौं, जहां मैं होऊ तहते तमका अभाव हो जावे, चंद्रमासूर्यरूपी डब्बा है, तिसविषे दिनरात्रिरूपी रत्न हैं, दिनरात्रि काल वर्षरूपी अनेक रत्न हैं, सो सर्वदा निकसते रहते हैं। राजसी सात्त्विकी तामसी क्रियारूपी कमलिनीका मैं सूर्य हुआ, अरु सर्व देवता पितरको तृप्त करत भया॥ यज्ञकी अग्निहोकार अग्नि रत्न मोती मणि आदिक जो प्रकाश्य पदार्थ हैं, तिनविषे प्रकाश मैं हौं, अरु प्राणके अंतर मैं स्थित हुआ, प्राण अपानके क्षोभकार अन्नको पचावता है, जैसे आत्माके प्रकाशकरि रूप अवलोकन नमस्कार प्रकाशते हैं, तैसे सब पदार्थ मेरे प्रकाशकार प्रकाशते हैं, काहेते कि तेजरूप मैं हौं, मानौ चेतनसत्ताका मैं दूसरा भाई हौं, जैसे सर्व पदार्थ आत्माकरि सिद्ध होते हैं, तैसे मुझकारे सिद्ध होते हैं । हे रामजी ! राजाविषे तेज मैं हौं, सिद्धविषे वीर्य होकरि स्थित मैं हौं, बलरूप होकार जगतकी पुष्टि मैं करता हौं, वडवाग्नि दाहकशक्ति होकरि जगत्को मैं नष्ट करता हौं, तेजवाविषे मैं तेज हौं, बलवाविषे मैं बल हौं, तले भी मैं हूँ, अरु मध्य भी मैं हूँ, अरु चंद्रमा सूर्यते रहित जो स्थान हैं, तिनविषे मैं हूं, अग्निरूपीदीपक करिकै अरु चंद्रमा सूर्यरूपी नेत्रकारिकै मध्य मंडलविषे स्पष्ट मैंही देखता हौं, ॥ हे रामजी ! इसप्रकार तेजरूप होकरि अंतर बाहिर स्थावर जंगम पदार्थविषे मैं स्थित भया, अरु जब बोधद्दष्टिकार