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भुशुण्डोपाख्यानेप्राणापानसमाधिवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

विचारणा श्रेष्ठ है, न काव्यका जानना श्रेष्ठ है, न पुरातन कथाके क्रम वर्णन करने श्रेष्ठ हैं, न बहुत जीना श्रेष्ठ है, न मूढताकरि मरजाना श्रेष्ठ है, न नरकविषे पड़ना श्रेष्ठ है, न इस त्रिलोकीविषे अपर कोऊ पदार्थ श्रेष्ठ है. जहां संतका मन स्थित है, सोई श्रेष्ठ है, यह नानाप्रकारका जगत‍्क्रम चलरूप है, जो ज्ञानवान् पुरुष है, सो मूढ होकरि चल पदार्थविषे नहीं रमते, वह बहुत जीनेकी इच्छा भी नहीं करते॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे भुशुंडोपाख्याने संकल्पनिराकरणं नाम विशतितमः सर्गः ॥२०॥



एकविंशतितमः सर्गः २१.

भुशुण्डोपाख्याने प्राणापानसमाधिवर्णनम्।

भुशुण्ड उवाच॥ हे मुनीश्वर! केवल एक आत्मदृष्टि सबते श्रेष्ठ है, जिसके पायेत सर्व दुःख नाश होते हैं, अरु परमपदको प्राप्त होते हैं, सो आत्मचिंतवन सर्व दुःखका नाश करता है, चिरकालके तीन तापकरि तपा जो जीव है, अरु जन्मके मार्गकरि थका हुआ है, तिसके श्रमको दूर करती है, अरु तप्तता मिटावती है, समस्त दुःखको जो अविद्या सत्ता अनर्थ प्राप्त करणेहारी है, तिसको नाश करती है जैसे अंधकारको प्रकाश नाश करता है, तैसे इसके अंतर शीतल प्रकाश उपजाती है॥ हे भगवन्! ऐसी जो आत्मचिंतवना है, सो सब संकल्पते रहित है सो तुमसारखेको सुगम प्राप्त है, अरु हमसारखेको कठिन है, काहेते जो सम सत्कलनाते अतीत है॥ हे मुनीश्वर! तिस आत्मचिंतनकी सखी अपर भी कोऊ इसको प्राप्त होवै, तो इसका ताप मिटि जावै, अरु महाशीतल होवै, तिनविषे मुझको एक सखी प्राप्त भई है, सब दुःखका नाश करती है, सब सौभाग्य देनेहारी, अरु जीनेका मूल है, ऐसी प्राणचिंता मुझको प्राप्त भई है॥ हे रामजी! जब इस प्रकार मुझको काकभुशुण्डने कहा, तव मैं जानता हुआ भी क्रीडाके निमित्त बहुरि पूछा, कि हे सर्व संशयके छेदनेहारे, चिरंजीवी पुरुष! सत् कहौ, प्राणचिंता किसको कहते हैं॥ भुशुण्ड

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