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(१५२३) योगवासिष्ठ । होता है, तिसको आवरण को रोक नहीं सकता. काहेते कि, सब अंग उसके होते हैं, ताते मुझको शुद्ध आत्माविषे स्वप्न हुआ है। अरु पूर्वका स्वरूप विस्मरण नहीं भया, तिसकर मुझको सब जगत् अपना स्वरूपही भासता है, अपने संकल्पकार कल्पे अपने अंगही भासते हैं, जैसे किंपुरुषने मनोराज्य कारकै अग्निका समुद्र रचा अरु उसविषे स्नान करै तौ क्यों होता है, उसको खेद भी नहीं होता, सब अपने संकल्पविपे उसको भासते हैं, अंतवाहक शरीरकारकै विराट सबको अपना आप देखता है, तैसे सब जगत् सुझको अपना आपभासै तौ खेद कैसे होवै, जैसे स्वप्नवाला स्वप्नविषे पर्वत नदियां अग्नि होतीहै। सो वहीरूप है, अरु एक आप भी आकार धारिकै बन जाता है, पूर्वका स्वरूप उसको भूल जाता है, परिच्छिन्नता कारकै राग द्वेषसाथ जलता है, अरु मैं तत्त्वरूप बना जो आपको जडरूप देखत भया, मैं आपको चैतनरूप देखता था, अरु जडकी नाईं भी मैं आपको जानत भया, इसप्रकार मुझको अपना स्वरूप विस्मरण न भया, तब मैं वैरा रूप सबको अपने अंग देखत भया, ताते खेद कैसे होवै, खेद तब होता है, जब अपना स्वरूप भूलता है, अरु परिच्छिन्न बनि जाता है, सो मैं तौ बोधवान् रहा, जो मैं स्पंद कारकै सब रूप धारे हैं । हे रामजी ! जिसको यह निश्चय हैं, तिसको दुःख कहाँ होवे, सुखदुःखरूप जो पदार्थ हैं सो मैं अपने विषे ऐसे देखत भया, जैसे आदर्शविषे प्रतिबिंब भासता है, जिसको यह सृष्टि होवे, तिसको दुःख कहां है ॥ हे रामजी ! जिसको अंतवाहकशक्ति प्राप्त होती है, वह समर्थ होता है, पातालविषे जावै आकाशविषे उडै, जहाँ प्रवेश किया चाहै, सो सब होता है, काहेते कि, सृष्टि संकल्पमात्र है । हे रामजी! अपर कछु सृष्टि बनी नहीं, आत्माका चिनही सृष्टिरूप होकार भासता है ॥ हे रामजी ! यह सृष्टि सब ब्रह्मरूप ' है, हमको तौ सदा ऐसेही भासती है, जब तू जागैगा तब तुझको भी ऐसेही भासैगी, सो तू भी अब जागा है, इसप्रकार मैं अग्नि होकर स्थित भया, जिसकी शिखाते कालप निकसती है, सो प्रकाश मैंही भया, चिद्रूप अपने स्वरूप अनुभवविषे मुझको जगत् भासै, तिनविषे मैं स्थित हुआ,