पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६४२

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ब्रेलजगदेकताप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरणं, उत्तराई ६. ( १५३३) अंधकार भी अरु उलूकादिक भी मेरे प्रकाशकरि प्रकाशते हैं, अरु भावरूप पदार्थ भी मैं अपनेविषे जानत भया. काहेते कि,भावरूप पदार्थ तब भासते हैं, जब उनका रूप होता है, सो रूपवान् पदार्थ मैही था. इस कारणकरि सब मेरेहीकरि सिद्ध होते हैं, इसप्रकार मुझको प्रतिभा हुई । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अंतवाहकचिदचिववर्णनं नाम द्विशताधिकद्वितीयः सर्गः ॥२०२।। द्विशताधिकतृतीयः सर्गः २०३. ब्रह्मजगदेकताप्रतिपादनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! बार मैं पवनकी धारणाको अभ्यास, • किया, तब पवनरूप होकर विचरने लगा, कमल फूल अरु वृक्षको हि लावने लगा, तारानक्षत्रका आधारभूत भया, तब मेरेकरि, फिरने लगे, चंद्रमा सूर्यके चलानेहारा मैंही भया, समुद्र नदियोंके प्रवाह मेरेहीकार चलते हैं, मनका बड़ा वेग भी मैही हौं, प्राणी उसके शरीरविषे मेरा निवास है, मैही प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान पंचरूप होकार स्थित भया हौं, अरु सब नाडीविषे मेरा :निवास है, अरु सब नाडीके रस अपना अपना भाग मैंही पहुँचावता हौं, हलना, चलना, बोलना, लेना, देना सब मुझहीकरि सिद्ध होता है, सर्व पदार्थविषे स्पर्शशक्ति मैही हौं, सर्व शब्द मेरेहोकरि सिद्धहोते हैं, क्रियारूपी बूंदका मैं मेघ हौं, आकाशरूपी जो ग्रह है, तिसविषे मेरा निवास है, इशों दिशा सब मेरेविषे फुरी हैं, देवताको गंधकार सुख मैंही देता हौं, दीपकको प्रज्वलित - मैंही करता हौं, पक्षीविषे मेरा सदा निवास है, जैसे अग्निविषे उष्णता रहती है, सबके सुखावनेहारा मैंही हौं, हरियावल करनेहारा भी मैंही हौं । हे रामजी इसप्रकार मैं पवन होकार स्थित भुया, ताते रूप अवलोकन मनेस्कार सर्व पदार्थ मैंही भया, चंद्रमा, सूर्य, तारे, अग्नि, इंद्र, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, वरुण कुबेर,यम आदिक जगत होकारै मैंही स्थित भया, पंचभूतकारि भूतके अंतर भी मैंही हौं, अरु बाहिर भी मैं हौं, प्राण