पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६४४

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आकाशकुटीसिद्धसमाधियोगवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६.१ १५२५) द्विशताधिकचतुर्थः सर्गः२०४. आकाशकुटीसिद्धसमाधियोगवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इसप्रकार जब मेरेविषे सृष्टि फुरीं, तब मैं तिनके भ्रमको त्यागि अरु संकल्पको बैंचिकार अंतर्मुख हुआ, अरु अपनी जो कुटी थी तिसकी ओर आया, जब कुटी देखी, तब तिसविषे एक पुरुष बैठा मुझको दृष्टि आया, तब मैं विचार किया कि, यह किंवन है, अरु मेरा शरीर था सो कहाँ है, तब मैं विचार कार देखा कि, यह कोङ महासिद्ध है, अरु मेरा शरीर इसने मृतक जानकार गिराय दिया है, सो सिद्ध कैसे बैठा है, जो पद्मासन बाँधिकार दोनों गिटे पटके ऊपर किये है, अरु शिर ग्रीवा सूधे किये हैं, दोनों हाथ पटते ऊर्च किये है, मानौ कमलफूल है, मानौ अंतरका प्रकाश बाह्य आनि उदय हुआ है, अरु नेत्र मूंदेहैं, मानौ सब वृत्ति मूंदी छोंडी हैं ॥ हे। रामजी ! इसप्रकार समाधि लगायकर पद्मासनकारै आत्मपदविषे स्थित बैठा है, बहार कैसा है, निरावरण बादलते रहित सूर्यकी नाई प्रकाशता है; जैसे धूमते रहित अग्नि प्रकाशता है, तैसे वह सिद्ध प्रकाशवान् स्थित है, इसप्रकार मैं उसको आत्मपदविषे स्थित देखत भया, जैसे दीपक निर्वाण स्थित होता है, जैसे स्थित देखिकर मैं विचार किया जो यह इहाँही बैठा रहें, मैं अपने स्थान सप्तर्षिविषे जाऊं, इसीप्रकार कुटीके संकल्पको त्यागिकार मैं उड़ा ।। हे रामजी ! इसप्रकार उड़ते हुए मार्गविषे मुझको विचार उपजा कि, अब सिद्धकी क्या दशा है, बहुरि उलटिकर देखौं तौ कुटीसह सिद्ध वहां नहीं, काहेते जो कुटी उसकी आधारभूत थी सो मेरे संकल्पविषे स्थित थी, जब मेरा संकल्प निर्वाण हो गया तब कुटी गिर पड़ी, तब तिसविषे सिद्ध कैसे रहै, वह भी गिर पड़ा ।। हे रामजी ! उसको गिरता देखकर मैं भी उसके पाछे हुआ कि, इसका कौतुक देखौं, तब आगे वह चला जावै, मैं पाछे अधको चला जावौं, परंतु मैं स्वाधीन चला जावौं, अरु वह पराधीन