पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६४७

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(१५२८)। योगवासिष्ठ । होता है, जैसे कदलीबनते रहित हुआ हस्ती महावतके वश आया निरादुरको पाता है ॥ हे मुनीश्वर ! जिस शरीरके निमित्त यह विषयकी इच्छा करता है, सो शरीर भी नाशरूप है, तिसविषे अहंप्रतीति करनी परम आपदाका कारण है, अरु शरीरविषे अहंप्रतीति न करनी परम सुखका कारण हैं, जैसे सर्पके मुखमें पड़ा हुआ दर्दुर मच्छरकी खानेकी इच्छा करता है, सो महामूर्ख है, किसी क्षणविषे काल इसको ग्रासि लेवैगा, ताते इसकी इच्छा करनी व्यर्थ हैं, अरु दुःखका कारण है ॥ हे मुनीश्वर । बालक अवस्था व्यतीत होती है, तब युवावस्था आती है, युवाते उपरांत वृद्धावस्था आती है, तब जर्जरीभावको प्राप्त होता है, जैसे वसंतऋतुकी मंजरी ज्येष्ठ आषाढविषे सूखि जाती है, तैसे वृद्धावस्थाविषे शरीर जर्जरीभावको प्राप्त होता है, अरु दुःख पाता हैं, बालक अवस्थामें क्रीडाविषे मग्न होता है, यौवन अवस्थाविषे कामादिककार मग्न होता हैं, वृद्ध अवस्थाविषे चिताकार मग्न होता है, इस प्रकार यह तीनों अवस्था व्यतीत होती हैं, बहुरि मृत्यु हो जाता है, जीवकी अवधि इसप्रकार पडी व्यतीत होती है, परमपदते अप्राप्त रहते हैं । हे मुनीश्वर ! यह आयुर्बल बिजलीके चमत्कारकी नाई है, तिस क्षणभंगुर अवस्थाविषे जो भोगकी वांछा करते हैं, सो महादुःखको प्राप्त होते हैं, इनविषे सुख देखकर कहै, कि मैं स्वस्थ रहौंगा, सो कदाचित् न होवैगा, जैसे जलके तरंगकी गोदविषे बैठकर स्थित हुआ चाहै, सो नहीं रहेगा. अवश्य मरैगा, तैसे विषयभोगोंकरि शांतिसुख नहीं होता, जैसे कोऊ महाधूमकारे तपा हुआ, सर्पके फणिकी छायातले बैठिकार सुखकी वांछा करै सो न होवैगा, जब आत्मज्ञानरूपी वृक्षकी छायाके नीचे बैठे, तब शांत सुखी होवैगा, जिन पुरुषोंने विषयकी सेवना करी है, सो परमदुःखको प्राप्त होते हैं, जिनने आत्मपदकी सेवना करी है, सो परमानको प्राप्त होते हैं, जैसे नदीका प्रवाह अधोको चला जाता है, तैसे मूर्खको मन विषयकी ओर धावता है, यह संसार मायामात्र है, इसविषे शांति कदाचित् नहीं प्राप्त होती, जैसे मरुस्थलकी नदीके जलकार तृषा निवर्त नहीं होती, तैसेविषयभोगकारि शाँति कदा