पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६५

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योगवासिष्ठ।

उवाच॥ हे सर्ववेदांतके वेत्ता, सर्व संशयके नाशकर्ता! मुझको उपहासके निमित्त पूछता है, तू तौ सब कछु जानता है, परंतु तुमते शिक्षा मैं कहता हौं, गुरुके आगे कहनाभी कल्याणके निमित्त है, भुशुण्डको जीवनेका कारण अरु भुशुण्डको आत्मलाभ देनेहारी प्राणचिंता कहाती है॥ हे भगवन्! इसी दृष्टिको आश्रय करिकै मैं परमपदको प्राप्त भया हौं, बंधन मुझको कहूं नहीं होता, बैठते, चलते, जागते, सोते, सव ठौर, सब अवस्थाविषे मेरा चित्त सावधान रहता है, इस कारणते बंधन कोऊ नहीं होता॥ हे मुनीश्वर! प्राण अरु अपानके संसरणेकी गति मैंने पाई है, तिस युक्तिकरि मुझको आत्मबोध हुआ है, तिस बोधकरि मेरे मदमोहादिक विकार नष्ट हो गये हैं, अरु शांतरूप होकरि स्थित भया हौं, हे मुनीश्वर! जिसको प्राण अपानकी गति प्राप्त भई, सो सब आरंभ कर्मको करै, अथवा सब आरंभका त्याग करै, परंतु सदा शांतरूप है, सुखसे तिसका काल व्यतीत होता है॥ हे मुनीश्वर! प्राण जो उपजता है, सो हृदयकोटते उपजता है, उपजिकरि द्वादश अंगुलपर्यंत बाहिर जाता है, तहां जायकरि स्थित होता है, तिस ठौरते अपानरूप होकरि उदय होता है, सो अंतर आता है, हृदयविषे आईकरि स्थित होता है॥ हे मुनीश्वर! वाह्य आकाशके सन्मुख जो प्राण जाता है, सो अग्निमुखवत् उष्ण होता है, अरु जो हृदयाकाशके सन्मुख आता है, सो शीतल नदीके प्रवाहवत् आता है, अपान चंद्रमारूप है, अरु बाहरते अंतर आता है, अरु जो अंतरत बाहर जाता है सो प्राण है, अग्नि उष्ण सूर्यरूप है, प्राणवायु हृदयाकाशको तपाता है, अरु अन्नको पचाता है; अरु अपने हृदयको शीतल करता है, चंद्रमाकी नाई है॥ हे मुनीश्वर! अपानरूपी चंद्रमा जव प्राणरूपी सूर्यविषे लीन होता है, तहां साठ तत्त्व हैं, तिनविषे मन स्थित हुआ बहुरि शोकको नहीं प्राप्त होता, अरु प्राणरूपी सूर्य जब अपानविषे चंद्रमाके घरविषे जाय लीन होता है, तिस अवस्थाविषे मन, स्थित हुआ बहुरि जन्मका भागी नहीं होता॥ हे मुनीश्वर! सूर्यरूप जो प्राण है, उसने अपने सूर्यभावको त्यागा, अरु अपानरूप चंद्रमाको जबलग नहीं प्राप्त भया, तिस