पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६५०

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अंतरोपाख्यानवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६, (१५३३ ) कारि सोई जानता है, जो अग्रभाग होता है.विशेष नहीं जानता, इसकारणकार मुझते तुम्हाराशरीर गिरा है।।इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे आकाशकुटीसिद्धसमाधियोगवर्णनंनामद्विशताधिकचतुर्थःसर्गः॥२०४॥ द्विशताधिकपंचमः सर्गः २०५. अंतरोपाख्यानवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे साधो 1 मुझते भी तेरा गिरना विचारविना हुआ है, जो विचारना मैं उठि गया था, यह कुटी मेरे अंतवाहक संकल्पविषे थी, सो अपने स्थानको चला, इसकारणते कुटी गिर पड़ी, तू भी गिरपडा, जो व्यतीत गई सो भली, तिसकी क्या चितवना करिये, ज्ञान वान् बीतीकी चितवना नहीं करते, जो हानी हुई सो भली ।। हे साधो। अब चलिये, जहां तुम्हारेको जाना है, तहां जावडु, जहाँ हमको जाना हैं, तहां हम भी जाते हैं । हे रामजी 1 इसप्रकार चर्चा करके हम दोनों आकाशमार्गको उडे, जैसे पक्षी उडता हैं, तब परस्पर नमस्कार कारकै हम भिन्न भिन्न हो गये, वह अपने स्थानको गया; अरु मैं अपने स्थानको चला, मैं बहुतेरे स्थान देखती आऊं, परंतु मुझको कोऊ न जानै ।। हे रामजी । यह संपूर्ण वृत्तांत मैं तेरेताई कहा है, तू इसको विचार ।। राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुम जो सिद्धके साथ समागम किया था, सो आकाशमार्गविषे कैसे शरीरसाथ फिरे पांचभौतिक शरीर तौ पृथ्वीपर डारा था, वह तौ पृथ्वीविषे अणुरूप हो गया, विचरे किस कारकै ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! अंतवाहक शरीरसाथ मैं विचरता फिरा हौं, तिसकार मैं सिद्ध देवताके स्थानोंविषे इंद्र वरुण कुबेरके स्थानोंविषे फिरा हौं, परंतु मेरेतांई कौन देखै, मैं सबको देखौं संकल्पपुरुषसाथ मेरा व्यवहार हुआ, अपर किससाथ कहौं, जो अपर किसीको भासा नहीं ॥ राम उवाच ॥ हे मुनीश्वर । अंतवाहक शरीर इंद्रियोंका विषय तौ नहीं, सिद् साथ चर्चा कैसे करी,