पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६५१

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( १९३२ ) योगवासिष्ठ । - अरु तुमको उसने कैसे देखा ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इसप्रकार जो तू कहता है तौ सुन, सिद्धको मैं इसनिमित्त दृष्टिआया हौं जो मेरा सत्यसंकल्प हैं, मेरे यह ऊरणा हुआ कि, सिद्ध मुझको देखै अरु चर्चा करे, इसकरि उसने मुझको देखा उसका संकल्प भी मेरेविषे आया तब जाना; अरु जो दोनों सिद्ध होवें, अरु उनका संकल्प भिन्न भिन्न होने, तौ एक दूसरेके संकल्पको नहीं जानते, परंतु किसीका विशेष संकल्प होवै, तब वह दूसरेके संकल्पको जानताहै, ताते उसका संकल्प मेरे देखनेको न था, अरु मेरा जो दृढ संकल्प था, तिसकार उसके • संकल्पको खैचि अपने ओर ले आया, जो बली होता है, तिसकी जय होती है, इसकारि उसने मुझको देखा ॥ हे रामजी ! जो अंतवाहकविषे । स्थित होता है, तिसको तीनोंकालका ज्ञान होता है, परंतु व्यवहार विषे लगे, तब भूल जाता है, जो वर्तमान पदार्थ होता है, तिसका * ज्ञान होता है, इसी कारणते उसने मेरा शरीर डारि दिया था सो समाधिके व्यवहारविषे लगा था, अरु मेरे संकल्पकार वह कुटी भी -तब गिरी थी, जो मैं अपने स्थानके व्यवहारको चलाथा, ऐसी चिंतन कारकै जो में चितवनाविषे न होता, अरु अंतवाहक शरीरविषे होता, अरु उस कुटीके भविष्यत् विचार देखता, अरु उस संकल्पको रहने देता तौ सिद्ध न गिरता, जों अपर व्यवहारविषे लगा, इसकरिके अनवाहक विस्मरण हो गया, तब कुटी गिर पड़ी, अरु सिद्ध भी गिर : पडा॥ हे रामजी! इसप्रकार सिद्ध गिरा अरु चर्चा हुई तब मैं वहाँते 'चला, अंतवाहक शरीरकी आकाशमार्गविषे फिरने लगा, सिद्धके समूहँ देखे, देवता विद्याधर गंधर्व किन्नर ऋषि मुनि वरुण कुबेर इंद्र यमते आदि लेकर सबके स्थान देखे, मैं सर्वको देखता फिरा परंतु • मुझको कोऊ न देखै, मैं बडे बडे शब्द करौं कि, किसीप्रकार शब्द को सुनै, अरु मुझको देखे, परंतु मेरा शब्द कोऊ न सुने, अरु न कोङ देखै, जैसे स्वप्नविषे कोऊ शब्द करे, तब उसका शब्द जाग्रतवाले कोऊनहीं सुनते, जैसे असंकल्पवाला दूसरेकी सृष्टि व्यव। हार शब्द को नहीं जानता तैसे मुझको कोऊ न जानता भया ॥