पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६५२

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अन्तरोपाख्यानवन-निर्वाणेप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( १५३३) हे रामजी ! इसप्रकार मैं, आकाशपिशाच होकार विचरा बहुरि देवताके स्थानोंका पिशाच होकार विचारा मैं सबको देखौं, अरु मुझको कोऊ न देखत भया । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! पिशाचका शरीर कौन होता है, अरु पिशाचकी जाति क्या होती है, अरु पिशाचकी क्रिया क्या होती हैं, अरु तिनके रहनेका स्थान क्या होता है । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! पिशाचकी कथासाथ प्रयोजन कछु न था तथापि तैने प्रसंग पायकार पूछा है, ताते मैं कहता हौं, पिशाचका आकार नहीं होता, अरु जो जो रूप धारते हैं, सो सुन, एक तौ आकाशकी नाई शून्य होते हैं, एक बिछावेकी नाई भयको देते हैं,एक मेघ होकार स्थित होते हैं, एक कामरूप धारिकारे स्थित होते हैं, ऐसे रूप धारिकै विचरते हैं, वह सबको देखते जानते हैं, अरु उनको चलते - बैठते को नहीं जानते परंतु शीत उष्ण कारकै वह भी दुःख पाते हैं, अरु ईच्छा द्वेष लोभ मान मोह क्रोध आदिक विकार उनविषे भी रहते हैं, शीतल जल भले, भोजनकी इच्छा वह भी करते हैं, अरु नगरविषे भी रहते हैं, वृक्षविषे भी रहते हैं, दुर्गंध स्थानोंविषे भी रहते हैं, कहूँ गीदड होकरि दिखाई देते हैं, कहूं थान होकार दिखाई देते हैं, मनविषे भी जायकार प्रवेश करते हैं, बार मंत्र पाठ दान आदिककार वश भी होते हैं, सो भी अपनी अपनी वासनाके अनुसार होता है, इनविषे भी कई उत्तम होते हैं, कई मध्यम होते हैं, कई नीच होते हैं, जो उत्तम हैं सो देवताके स्थानविषे रहते हैं,अरु जो मध्य हैं सो मनुष्यके • स्थानविषे रहते हैं,जो नीच हैं सो नरकके स्थानविषे रहते हैं,अरु इनकी * उत्पत्ति अचैत्य चिन्मात्र जो दृश्य तिसते रहितहै, शुद्ध चेतन तिसते हुई । है ॥ हे रामजी ! सबका अपना आप वही चेतनसत्ता है,कल्पवृक्षकी नाई । उसविषे जैसी जैसी वासना होतीहै, तैसा तैसा पदार्थ हो भासता है ॥ 'हे रामजी ! न कहूं पिशाच है, न जगत् है, ब्रह्मसत्ताही ज्योंकी त्यों * अपने आपविषे स्थित हैं, शुद्ध आत्मत्वमात्रविषे जो किंचन हुआ हैं, * जो अहं होकार फुरा है, तिसको जीव कहते हैं । तिस अहंकी दृढता * कारकै मन फुरा है, सो मन ब्रह्मारूप होकार स्थित भया हैं, तिस