पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(१५३६), योगवासिष्ठ । अरु सब जीवका अपना अपना भिन्न संकल्प है, तिसके अनुसार अपनी सृष्टि होती है, अरु जो तू कहै भिन्न भिन्न है तौ जीव इकडे क्यों दृष्ट आते हैं, ऐसा चहिए जो अपनी अपनी सृष्टिविषे होवें, तिसका उत्तर यह है, जैसे एक नगरवासी अपर नगरविषे जावै अरु एक नगरवासी अपरविषे आवै, दोनों जाय इकठे बैठे, तैसे सब जीव इकडे भासते हैं, तिनके इकटे हुए उसकी सृष्टि वह नहीं देखता, अरु उसकी सृष्टि वह नहीं देखता, जैसे स्वप्नविषे भिन्न भिन्न भूतजात होते हैं; अनुभवविर्षे इकडे दृष्ट आते हैं, अरु एक अनुभवविषे भिन्न भिन्न होते हैं, एक दूसरेकी सृष्टिको नहीं जानते, जीव अंतवाहक भूलि गया है, अधिभूत दृढ हो रहा है, जैसा अनुभवविषे अभ्यास होता है तैसाही भासता है, जहाँ पिशाच होता है, तहाँ अंधकार भी होता है जो मध्याइका सूर्य उदय होवे अरु पिशाच आगे आवै तौ अंधकार हो जाता हैं, ऐसा तमरूप होता है, जैसे उलूकादिकको प्रकाशविघे अंधकार होता है, तैसे अनेक सूर्यका प्रकाश होवै तौ भी पिशाचका अंधकारही रहता है ॥ हे रामजी । जैसा उनविषे निश्चय होता हैं, तैसाही भान होता है, काहेते जो उनका ओज तमरूप है, जैसा किसीका निश्चय होता है, तैसा भासता है, हमको तौ सदां आत्माका निश्चय हैं, ताते सदा आत्मतत्त्वका भान होता है, जैसे पिशाच पांचभौतिक शरीरते रहित चेष्टा करते हैं, तैसे मैं पांचभौतिक शरीरते रहित आकाशविषे चेष्टा करता रहा हौं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अंतरोपाख्यानवर्णनं नाम द्विशताधिकपंचमःसर्गः २०५॥ द्विशताधिकषष्ठः सर्गः २०६. अन्तरोपाख्यानसमाप्तिवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! मैं चिदाकाशरूप हौं, सो पांचभौतिक शरीरते रहित अंतवाहक शरीरसाथ विचरता रहा हौं, परंतु मुझको देखे कोऊ नहीं, चंद्रमा सूर्य इंद्र जो सहस्र नेत्रवाले हैं, अरु सिद्ध गंधर्व ऋषीश्वर मुनीश्वर ब्रह्मा विष्णु रुद्र भी इस चर्मदृष्टिसाथ देखि कोऊ न सके,