पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६५६

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अन्तरौपाख्यानसमाप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण,उत्तराई ६. (१५३७) अरु मैं सबको देखता फिगैं, इंद्रके निकट जायकार मैं उसके अंग हिलावत भया, परंतु सुझको जानै नहीं, जैसे संकल्पनगर किसको हिलावै, अरु वह देखें, अरु आधिभौतिक शरीर न हेले, तैसे उनके शरीर मेरे हिलावनेकार हिले नहीं, तब मैं अतिमोहको प्राप्त भया कि बेड़ा आश्चर्य है, एता काल मैं रहा अरु मुझको देखि कहूँ नहीं सकता, तवू यह इच्छा मैं करी कि मुझको देखै, तब मेरा जो सत्यसंकल्प रूप था तिसकार देखने लगे, जैसे कहूँ इंद्रजालको देखै तैसे मुझको देखने लगे, जिनने पृथ्वीते उपजा देखा तौ पृथ्वीते उपजा वसिष्ठ जानें,मनुष्यलोकविषे कई जलते उपजा जानैं, जो वारंवार वसिष्ठ हैं, जिन ऋषीश्वरनेतीर्थ जो जलरूप है, तिनते उपजा देखा ताते वारिवसिष्ठ जाना, कि यह वारिवसिष्ठ है,कई वायुते उपजा जानै सिद्धादिक । कई जानें कि यह सप्तर्षिके मध्य वसिष्ठ है,जो तेज वसिष्ठ है, इसप्रकार जगतविषे मुझको देखने लगे, तब सबसाथ व्यवहार करने लगा, जब बहुत काल व्यतीत भया तब भावनाकी दृढता करिकै पांचभौतिक शरीर मुझको देखते भये, प्रथम वृत्तांत सबको विस्मरण हो गया, अधिभौतिकता दृढ होत भई, जैसे अज्ञान कारकै स्वप्ननरको आधिभौतिक देखता है; तैसे मेरे साथ आकारको देखते भये, अरु मुझको सदा अपने स्वरूपावर्ष अप्रत्ययते इतर द्वैत कछु भासता न था, काहेते कि मैं ब्रह्मरूप हौं, अरु वसिष्ठ नाम मेरा ऐसा है, जैसे जेवरीविषे सर्प होता है, सो मैं चिदाकाशरूप हौं, अरु अपरको वसिष्ठप्रतीत उपजी है । हे रामजी ! जैसे तुमसारखेको मेरा आकार दृष्ट आता है, अरु सुझको आधिभौतिक अंतवाहक दोनों शरीर चिदाकाशका किंचन भासता है, मैं सदा निराकार अद्वैतरूप हौं, चेष्टा तुम्हारी हमारी समान है, परंतु सुझको सदा आत्मपदका निश्चय है, इस कारणते मैं जीवन्मुक्त होकर विचरता हौं, अज्ञानीको क्रियाविषे द्वैत भासता है, अरु हमको क्रियाविषे भी अद्वैत भासता है, ब्रह्मा भी ब्रह्मरूप भासता है, अरु तिसका संकल्प जो जगत् है सो भी ब्रह्मरूप है, जैसे समुद्रविषे तरंग होते हैं, सों जलरूप हैं, भिन्न | ९७