पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(१९३८) यौगवासिष्ठे । कछु नहीं, तैसे ब्रह्मविषे जगत् ब्रह्मरूप है, भिन्न कछु नहीं सर्व ब्रह्मही है, ताते मैं चिदाकाशरूप हौं, द्वैत कछु नहीं कुरता,जब अहं फुरती है तब जगत् द्वैतरूप होकर भासता है, जैसे अहके ऊरणेते स्वप्नसृष्टि होती है, तैसे जाग्रतसृष्टि होती है सो संकल्पमात्र है, ब्रह्मा अरु ब्रह्माका जगत् संकल्पकी दृढताकारकै आधिभौतिककी नई हो भासता है, वास्तवते न ब्रह्मा उपजा है, न जगत् उपजा है, चिदानंद ब्रह्म अपने आपविषे स्थित हैं, सदा एकरस है ॥ हे रामजी ! सृष्टिकी आदि अरु प्रलयपर्यंत जो कछु क्षोभ है, तिसविषे आत्मा सदा एकरस है, उसविषे क्षोभ कदाचित नहीं, काहेते कि वास्तव कछु उपजा नहीं, अरु जो कछु भासता है, सो अज्ञानकारकै सिद्ध है, ज्ञानकारि जगत्भ्रम निवृत्त हो जाता है, जैसे स्वप्नसृष्टिविषे इसको कहूं निधि भासी, तिसके प्राप्ति निमित्त यत्न करता है, अरु जब जागा तिसको स्वप्न जाना, बहुरि तिसके पानेका यत्न नहीं करता, तैसे जब आत्मबोध इसको हुआ, तब फर इस जगविषे जगतबुद्धि नहीं रहती, अज्ञानही जगत्भ्रमका कारण है, तिस अज्ञानकी निवृत्तिका उपाय यही है कि इस महारामायणका विचार करना, तिसकरि संसारभ्रम निवृत्त होवैगा, यह संसार अविद्याकारि वासनामात्र है, इसको सत्य जानिकार जो इसकी ओर धावते हैं, सो परमार्थते शून्य हैं, अरु मूढ हैं, कीट हैं, अरु वानरकी नई चंचल हैं, जिनको भोगविषे सदा इच्छा रहती है, सो नीच पशु हैं,तिनको संसार निवृत्त होना कठिन है, तृष्णा अंतर सदा रहती है, वैराग्यको नहीं, प्राप्त होते ॥ है रामजी! भोग तौ ज्ञानवान भी भोगते हैं, परंतु भोगबुद्धिकार नहीं भोगते, प्रवाहपतित जो कछु प्रारब्धवेग कारकै आनि प्राप्त होता हैं, तिसको भोगते हैं, अरु जानते हैं कि गुणविषे गुण वर्तते हैं, अरु इंद्रियों सहित भोगको भ्रांतिमात्र जानते हैं, अरु जो अज्ञानी सो आसक्त होकर भोगते, अरु तृष्णा करते हैं, भोगकी तृष्णाकार अंतर जलता है, इसीका नाम बंधन है, अरु भोग दुःखरूप हैं, जो इनको सेवते हैं, सो अंतरते सदा तृष्णाकार जलते हैं, तिनका द्वैतरूप जगतभ्रम कदाचित् नहीं मिटता, अरु जो ज्ञानवान् हैं, सो सदा आत्माकारि तृप्त रहते हैं, ताते शतिरूप हैं, जैसे हिमालय पर्वतविषे पदार्थ शीतल हो जाता है,