पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६५८

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जीवन्मुक्तसँजावर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६ (१५३९) तैसे आत्मज्ञानकर अंतर शीतल हो जाता हैं, अरु आत्मानंदकी प्राप्ति होती है, दुःख कोऊ नहीं रहता, अरु जिनका चित्त सदा स्त्री पुत्र धनविषे आसक्त है, अरु इच्छा करते हैं, सो महामूर्ख हैं, अरु नीच हैं, तिनको धिक्कार है, जिसको आत्मपदकी इच्छा होवे, तिसको सदा संतनका संग करना चाहिये, सो शास्त्रोंका श्रवण विचार करै, इस अभ्यासकरि आत्मपदकी प्राप्ति होगी ।। हे रामचंद्र | यह शास्त्र विचार कियेते परमपदको प्राप्त करनेहारा है, जो पुरुष इस शास्त्रको त्यागिकार अपरकी ओर लगते हैं, सो मूर्ख हैं । वाल्मीकि उवाच ॥ हे राजन् ! जब इस प्रकार वसिष्ठजीने कहा, तब सायंकालका समय हुआ, सर्व श्रोता परस्पर नमस्कार कर गये, बहुरि सूर्यको किरणें उदयकार आनि स्थित भये ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अंतरोपाख्यानसमाप्तिवर्णनं नाम द्विशताधिक षष्ठः सर्गः ॥ २०६॥ द्विशताधिकसप्तमः सर्गः २०७. जीवन्मुक्तसंज्ञावर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! तुझको अंतरोपाख्यान श्रवण कराया हैं, तिसके विचारते जगत्भ्रम नष्ट हो जावैगा, ऐसे जब तू विचारकरि देखेगा, तब अनंत ब्रह्मांड आत्माविषे वसते दृष्ट आवेंगे ॥ हे रामजी । आत्माविषे जगत् कछु वास्तव नहीं हुआ, ताते मिटना भी नहीं, चित्तके फुरणेकरि भासता है, जब चित्तका ऊरणा अधिष्ठानविषे लीन हो जावैगा, तब अद्वैत तत्त्व आत्माही भासैगा । हे रामजी ! अद्वैत तत्त्वविषे जगत् भ्रमकार भासता है, ज्ञानवान्की दृष्टिविषे सदा अद्वैत भासता है, जगत् भी सब चिदाकाशरूप है, मैं भी चिदाकाश हौं, तू भी चिदाकाश है, आत्माते इतर कछु नहीं, आत्मसत्ताही जगत् होकर भासती है, जैसे अपना अनुभव स्वप्नविचे स्वप्नसृष्टि हो भासती है, सो अनुभवरूपही हैं, तैसे यह जगत् भी चिदाकाशरूप है, नानाप्रकारके विकार भी दृष्ट आते हैं, तो भी आत्मसत्ता अनुस्यूत अखेडरूप है,