पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६६०

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जीवन्मुक्त ज्ञावर्णन-निर्वाणकरण, उत्तराई ६. (१५४१ ) करता है, जैसे कोऊ चितामणिको त्यागिकार राखको अंगीकार करे तैसे शुद्ध चिन्मात्र अपने स्वरूपको त्यागिकार देहविषे आत्मअभिमान करता है, हे रामजी ! जब यह पुरुष.अनात्मविषे आत्मअभिमान करता है, तब आपको विचारवान् जानता हैं, अरु जन्मता मरता आपको मानता है, अरु जब देहाभिमानको त्यागिकरि आत्माको आत्मा मानता है, तब न जन्मता है, न मरता है, न शस्त्रकरि कटता है, न अग्निकर दग्ध होता है, न जलकर डूबता है, न पवनकार सूखता है, निराकार अविनाशी चिदाकाशरूप है ॥ हे रामजी । जब चेतनको भी मृत्यु होवे, तब पिताके मरे पुत्र भी मर जावें, एकके मरे सब जगत् मरि जावै, काहेते जो आत्मसत्ता चेतन एक है, अनुस्यूत है, सो एकके मरे सब नहीं मरते ताते चेतन आत्माको मृत्यु कदाचित् नहीं, शरीरके काटेते आत्मा कटता नहीं, शरीरके दग्ध हुए आत्मा दुग्ध होता नहीं, संपूर्ण विश्व भस्म हो जावै तौ भी आत्मा भस्म नहीं होता, आत्मा नित्य शुद्ध अनंत अच्युतरूप है, कदाचित् स्वरूपते अन्यथाभावको नहीं प्राप्त भया । हे रामजी ! मैं ब्रह्म हौं, अहंरूप हौं, अर्थ यह कि सबविणे अहंरूप निराकार अंड मैं हौं, न मुझको जन्म है, न मृत्यु है, सुखकी इच्छा नहीं, न कछु हर्ष है, न शोक है, न जीवनेकी इच्छा है, न मरणेकी इच्छा हैं, जैसे जेवरीविषे सर्प कल्पते हैं, जैसे स्वर्णविषे भूषण कल्पते हैं, तैसे आत्माविषे वसिष्ठ नाम रूप हैं, देश काल वस्तुकें परिच्छेदते रहित अनंत आत्मा हौं, नित्य शुद्ध बोधरूप हौं, सर्वका स्वरूप : आत्मतत्त्व है, परंतु वास्तवस्वरूपके प्रमादकारिकै अपर अवस्तुको प्राप्त हुयेकी नाई भासता है, अरु जो पुरुष स्वरूपविषे स्थित नहीं हुए; संसारमार्गकी ओर दृढ भये हैं, तिनका जीना वृथा है, कहना चैतन्य है नहीं तौ पाषाणकी शिलावत हैं; जैसे लुहारकी खलकाते पवन निकसता है, तैसे उनका जीना वृथा है, घटीयंत्रकी नई वासनाविषे भटकते हैं, आत्मानंदको नहीं प्राप्त होते, सदा तपते रहते हैं, अरु जिनको आत्मपदविषे स्थिति भई है, तिनको दुःख कदाचित् नहीं स्पर्श करता, जब प्रलयकालका पवन चले, अरु पुष्कर मेचकी वर्षा होवे, वडवाग्नि लगै, अरु द्वादश सुर्य तपें तो ऐसे क्षोभविषे भी