पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६६२

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जीवन्मुक्तसंज्ञावर्णन-निर्वाणकरण, उत्तराई ६. (१५४६) इष्टकी प्राप्तिविषे हर्ष करते हैं, अनिष्टकी प्राप्तिविषे शोक करते हैं, ऐसा कोङ जो जगतविषे सूर्यकी नई प्रकाशता है, नहीं तौ सब तृणैवत भोगरूपी वायुविषे भटकते हैं, जो सवते श्रेष्ठ कहाता है, सो भी विषयरूपी अग्निविषे जलता है, जैसे क्रम अरु शुभ स्थानविषे रहते हैं, अरु तिनकारि आपको प्रसन्न मानते हैं, तैसे देवता भी सदा भोगरूपी अपवित्र स्थानविषे आपको प्रसन्न मानते हैं, सो मेरे मतविषे दुर्गंधके कृमि हैं, अरु गंधर्व तौ मूढ़ हैं, तिनको तौ कछ शुद्धि नहीं, अर्थ यह कि, आत्मपदकी गंध भी नहीं, वह तौ मेरे मतविषे मृग हैं, जैसे मृगको रागकर आनंद भासता है, जैसे गंधर्व रोगकार उन्मत्त रहते हैं, आत्मपदते विमुख हैं। अरु विद्याधर भी मूर्ख हैं, काहेते कि, वेदके अर्थरूपी चतुराईको अग्निविषे जलाते हैं, अरु वेका सारभूत अमृत है, तिसको नहीं जानते, आत्मपदते विमुख हैं, अरु सिद्ध हैं, सो मेरे मतविषे पक्षी हैं, जो पक्षीकी नई उडते फिरते हैं, अभिमानरूपी पवनके चलनेकर अनात्मरूपी गर्तविषे आनि पडते हैं, वास्तवस्वरूपविषे स्थित होते नहीं, अरु यक्ष धनके अभिमानकारि चतुराई मूर्खकी प्रीतिकरिके जलते हैं, आत्मपदविषे स्थिति नहीं पाते, योगिनी भी मदकारकै सदा उन्मत्त रहती हैं, आत्मपदविषे स्थिति नहीं पातीं, अरु दैत्यों को भी सदा देवताके मारनेकी इच्छा रहती हैं, सदा शोकमें रहते हैं, आत्मपदते विमुख हैं, तुम तौ आगे भी जानते हौ, आगे भी मारे हैं, अरु अब भी मारौगे, अरु मनुष्य भी आत्मपदृते गिरे हुए हैं, इनको भी सदा इच्छा रहती है, कि गृह बनाइये अरु खाने अरु धन संचनेके निमित्त जगत् करते हैं,इंद्रियोंके अर्थविषे डूबे हुए हैं, अरु पातालविषे नाग रहते हैं, जिनका जलवि निवास हैं, सुंदर नागिनीविषे आसक्त रहते हैं, सो भी आत्मानंदते गिरे हुए हैं, इत्यादिक जो भूतप्राणी हैं, सो विषयसुखविषे लगे हुए हैं, आत्मपदते विमुख हैं, अरु सब जातविषे विरले जीवन्मुक्त भी हैं, अरु ज्ञानवान् भी हैं, सो श्रवण करु. देवताविषे ब्रह्मा विष्णु रुद्र सदा आत्मानंदृविषे मग्न हैं, चंद्रमा, सूर्य, अग्नि, वायु, इंद्र, धर्म राजा, वरुण, कुबेर बृहस्पति, शुक, नारद, कचते आदि लेकर जीवन्मुक्त पुरुष हैं, सप्त