पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६६३

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(१५४४), योगवासिष्ठ । ऋषि अरु दक्ष प्रजापतिते आदि लेकर जीवन्मुक्त हैं, सनक सनंदन सनातन सनत्कुमार चारौ जीवन्मुक्त हैं, अपर भी मुक्त बहुत हैं, सिद्धविषे कपिलमुनि आदिक जीवन्मुक्त हैं, यक्षविषे विद्याधरविषे योगिनीविष जीवन्मुक्त है, अरु दैत्यविषे हिरण्यकशिपु, प्रह्लाद, बलि, बिभीषण, इंद्रजित, स्वरमेय, चित्रासुर, नमुचि आदिक जीवन्मुक्त हैं, मनुष्यविषे राजर्षि, ब्रह्मर्षि, नागविष शेषनाग, वासुकि आदिकजीवन्मुक्त हैं। ब्रह्मलोक, विष्णुलोक, शिवलोक हैं कोई कोई विरले जीवन्मुक्त हैं ॥ हे रामजी ! जाति जातिविषे संक्षेपते तुझको जीवन्मुक्त हुए हैं, सो कहे हैं, अरु जहाँ जहाँ देखा हैं, तहां तहां अज्ञानी बहुत हैं, ज्ञानवान् कोऊ विरला दृष्ट आता है, जैसे जहां तहाँ अपर वृक्ष बहुत हैं, परंतु कल्पवृक्ष कोऊ विला होता है, तैसे संसारविषे अज्ञानी बहुत दृष्टि आते हैं, नी कोऊ विरला है । हे रामजी ! शूरमा अपर छोऊ नहीं, जिसको आत्मपदधिषे स्थिति भई है, सोई शूरमे हैं, अरु संसारसमुद्र तरणा तिनहीको सुगम है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जीवन्मुक्तसंज्ञावर्णनं नाम द्विशताधिकसप्तमः सर्ग ॥ २०७॥ दिशताधिकाष्टमः सर्गः २०८. जीवन्मुक्तव्यवहारवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जो विवेकी पुरुष विरक्तचित्त हैं, जिनको स्वरूपविषे स्थिति भई है, तिनके एते विकार स्वाभाविक नष्ट हो जाते हैं, राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह, अभिमान, दंभ आदिक विकार स्वाभाविक नष्ट हो जाते हैं, जैसे सूर्यके उदय हुए अंधकार स्वाभाविक निवृत्त हो जाता है, जैसे बाणको देखिकार कौआ भागि जाता है, तैसे विवेकरूपी बाणको देखिकारि विकाररूपी कौए भागि जाते हैं, अरु एते गुण उनके हृदयविषे स्वाभाविक आनि स्थित होते हैं, वह पुरुष किसीपर क्रोध नहीं करता, अरु जो करते हुए आते हैं। सो किसी निमि