पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६६४

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जीवन्मुक्तव्यवहारवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१५४५) त्तमात्र जानना, उनके हृदयविषे कछु नहीं, सदा शीतलता अरु दया उनके हृदयविषे रहती है, जो कोङ उनके निकट आता है, सो भी शीतल हो जाता है, काहेते जो निरावरण स्थित हैं, जैसे चंद्रमाके निकट आयेते शीतल होता है, तैसे ज्ञानवान्के निकट आयेते हृदय शीतल होता है, कोऊ पुरुष उनते उद्वेगवान् नहीं होता,अरु जोकोऊ निकट आता है, तिसको विश्रामके निमित्त स्थान देते हैं, अरु उसका अर्थ भी पूर्ण करते हैं, जैसे कमलके निकट भंवरा जाता है तिसको विश्रामका स्थान देते हैं, अरु सुगंधिकारि तिसका अर्थ पूर्ण करते हैं; तैसे संतजन अर्थ पूर्ण करते हैं अरु यथाशास्त्र चेष्टा करते हैं, अरु हेयोपादेयकी विधिको भी जानते हैं, जो कछु स्वाभाविक आनि प्राप्त होवै, तिसको शास्त्रकी विधि सहित अंगीकार भी करते हैं, अरु हृदयविषे सबकी भावनाते रहित हैं, अरु दान स्नान आदिक शुभ क्रिया तिनविषे स्वाभाविक होती हैं, अरु उदारता वैराग्य धैर्य शमदम आदिक गुण उन विषे स्वाभाविक होते हैं,इस लोकविषे भी सुख देनेहारे हैं, परलोकविषे भी सुख देनेहारे हैं ॥ हे रामजीजिन पुरुषोंविषे ऐसे गुण पाइये सो संत हैं, संसारसमुद्रके पार करनेहारे संतजन बहुत हैं, जैसे जहाजको आश्रय करके समुद्रते पार होता है, जैसे संसारसमुद्रके पार करनेहारे संतजन हैं, जिनको संतजनका आश्रय हुआ है, सो तरे हैं,बार कैसे हैं संतजन, जो संसारसमुद्रके पारके पर्वत हैं, जैसे समुद्रविषे बहुत जल होता है,अरु बडे तरंग उछलते हैं, तिसविषे बडे मच्छ रहते हैं, जब प्रवाह उछलता है, तब पर्वत उस प्रवाहको रोकता है, उछलने नहीं देता, तैसे चित्तरूपी समुद्र है, तिसविषे इच्छारूपी तरंग हैं, रागद्वेषरूपी मच्छ रहते हैं, जब इच्छारूपी तरंगका प्रवाह उछलता है, तब संतरूपी पर्वत तिसको रोकते हैं, सो संत अपने चित्तको भी रोकते हैं, अरु उनके निकटको जाता है, तब उसकी भी रक्षा करते हैं, अरु शरीर नष्ट होने लगै, अथवा नगर नष्ट होने लगै, अथवा निकट अग्नि लगै तौ भी ज्ञानवान्का हृदय स्वरूपते चलायमान नहीं होता, वह सदा अपने स्वरूपविषे स्थिर रहता है, जैसे भूकंपकारकै सुमेरु चलायमान नहीं होता, तैसे वह नहीं चलायमान होता, यह जो मैं तुझको शुभ गुण कहे हैं, स्वान दान,