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(१५४६ ) योगवासिष्ठ । सो जीवको सुख देनेहारे हैं, अरु दुःखको निवृत्त करते हैं, इनकार सुखकी प्राप्ति होती है, अरु दुःख नष्ट हो जाता है, सो श्रवण कर, जब स्नानदानकी ओर यह पुरुष आता है, तब संतकी संगतिविषे भी इसका चित्त लगता हैं, जब संतकी संगतिविषे चित्त आया, तब क्रमकारकै इमको परमपदकी प्राप्ति होती हैं, ताते इस पुरुषको यही कर्तव्य है, कि जो शास्त्रकार कहा है, तिसके अनुसार शुभगुणविषे चेष्टा होवे, अरु संतके निश्चयका अभ्यास होवे । हे रामजी। जिसको संतकी संगति प्राप्त होती हैं, सो भी संत हो रहता है, संतका संग वृथा नहीं जाता, जैसे अग्निसाथ मिला पदार्थ अग्निरूप हो जाता है, तैसे संतके संगकर असंत भी संत हो जाता है, अरु जो मूर्खकी संगति करता है, तब साधु भी सूर्ख हो जाता है, जैसे उज्ज्वल वस्त्र मलके संगकरि मलिन हो जाता है, तैसे मूढके संगकार साधु भी मूढ हो जाता है, काहेते जो पापके वशते उपइव भी आनि होते हैं, तैसे पापके वशते साधुको भी दुर्जनोंकी संगतिकार दुर्जनता आनि उदय होती है, ताते ॥ हे रामजी । दुर्जनोंकी संगति सर्वथा त्यागनी है, अरु संतकी संगति कर्तव्य है, जो परमहंस संतजन पाइये तौ जो साधु होवै जिसविषे एक गुण भी शुभ होवे, तिसका भी अंगीकार करिये परंतु साधुके दोष न विचारिये, उसका शुभ गुण अंगीकार करिये, जैसे भंवरा केतकीके कंटकके ओर नहीं देखता है, उसकी सुगंधका ग्रहण करता है, ताते ॥ हे रामजी! संसारमार्गको त्यागिकरि संतकी संगति करौ, तब संसारभ्रम निवृत्त हो जावैगा ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जीवन्मुक्तिव्यवहारो नाम द्विशताधिकाष्टमः सर्गः ॥ २०८ ॥ =-=-=- = - = -= -= द्विशताधिकनवमः सर्गः १०९. परमार्थरूपवर्णनम् । राम उवच ॥ हे भगवन् । हमारे दोष तौ सच्छास्त्र अरु सत्संग अरु तिनकी युक्तिकार दूर होते हैं, अरु समानदुःख तीर्थ स्नान दान जप