पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६६८

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परमार्थरूपवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१५४९ ) नहीं प्राप्त होते घटीयंत्रकी नई वासनाके अनुसार भटकते हैं, जब वासना दृढ पापकी होती है, तब पाषाण वृक्ष योनिको पाते हैं, जब क्षीण वासना तामसी होती है, तब तिर्यक् पक्षी सर्प कीट योनिको पाते हैं। हे रामजी राजसी वासनाकार मनुष्य होते हैं, सात्त्विकी वासनाकार देवता होते हैं,अरु जब मनुष्य शरीर धारिकार निवसनिक होते हैं, तब मुक्तिको पाते हैं, जब ज्ञान उत्पन्न होता है, तब जीवका दुःख नष्ट हो जाता है, अपर दुःखके नाश करनेका उपाय कोई नहीं, यह जगत्के दुःख तबलग भासते हैं, जबलग इसको आत्मज्ञान नहीं उपजा,जब आत्मज्ञान उपजा तब जगत्भ्रम मिटि जाता है, अरु जो मुझेते पूछौ तौ वास्तव न कोऊ देवता हैं, न मनुष्य है, न पशु पक्षी है, न पाषाण है, न वृक्ष हैं, न कीट है, सब चिदाकाशरूप है, दूसरा कछु बना नहीं,भ्रांतिकारिकै नानास्वरूप हो भासता है, सदा सर्वदाकाल सर्व प्रकार आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है ॥ हे रामजी ! न कछु जगत्का होना है, न अनहोना है, न । आत्मता है, न परमात्मता है, न मौन है, न अमौन है, न शून्य हैं, न अशून्य है, केवल अचैत्य चिन्मात्र अपने आपविषे स्थित है, तिसविषे जन्म अरु जन्मांतर भ्रमकारकै भासते हैं, जैसे स्वमते स्वप्नांतर भ्रमकारकै भासता है, अरु जैसे स्वप्नविषे एक अपना आप होता है, निद्रादोषकार द्वैत भासता है, जैसे एक अब भी आत्मा अद्वैतरूप है, अविचार करिकै नानात्व भासता हैं, अरु दुःख भी ज्ञानकारकै भासता है, विचार कियेते दुःख कछु नहीं पाता, जो यह पुरुष मृतक होकर उत्पन्न होता है, तौ शांति हुई, दुःख कोऊ नहीं, अरु जो मृतक होकर शांत हो जाता है, उपजता नहीं, तौ भी दुःख कोङ नहीं, मुक्त हुआ, अरु जो मरता नहीं तौ भी ज्योंका त्यों हुआ, दुःख कोऊ नहीं हुआ, अरु जो सर्व चिदाकाश है, तो भी दुःख कोऊ नहीं हुआ। हे रामजी ! अज्ञानीके निश्चयविषे दुःख है, विचार कियेते दुःख कोऊ नहीं, अरु यह जगत आत्मरूपी आदर्शविर्षे प्रतिबिंबित है, परंतु यह जगवरूपी कैसा प्रतिबिंब है, जो अकारणरूप है, इसका कारणरूप बिंब कोऊ नहीं, कारणते रहित हैं, जैसे नदीविषे नीलताका प्रतिबिंब