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योगवासिष्ठ।

पूरक होने लगता है, जब अपान जाय स्थित होता है, तब प्राणका कुंभक होता है, तिसविषे जब स्थित होता है, तब बहुरि तीन तापकरि तपायमान नहीं होता॥ हे मुनीश्वर! प्राण अपानके अंतर जो शांतरूप आत्मतत्त्व है, तिसविषे जब स्थित होता है, तब तपायमान नहीं होता, जब अपान आय स्थित होता है, अरु प्राण उदय नहीं भया, तिस अवस्थाविषे जो साक्षीभूत सत्ता है, सो आत्मतत्त्व है, तिसविषे जब स्थित होता है तब बहुरि सो कठिन नहीं होता, जब अपानके स्थानविषे प्राण जाय स्थित होता है, अरु अपान जबलग उदय नहीं, भया, तहां जो देश काल अवस्था है, तिसविषे मन स्थित होता है, तव मनका मनत्वभाव जाता है, बहुरि नहीं उपजता॥ हे मुनीश्वर! प्राण जो स्थित होता है अपानविषे, अरु अपान उदय नहीं भया, वह कुंभक है, अरु अपान आनि प्राणविष स्थित भया है, प्राण जबलग उदय नहीं भया, वह जो कुंभक है, तिसविषे जो शांततत्त्व है, सो आत्माका स्वरूप है, सो शुद्ध है, परम चैतन्य है, जो तिसको प्राप्त होता है, सो वहुरि शोकवाल नहीं होता, जैसे पुष्पविषे गंधसे प्रयोजन होता है, तैसे प्राण अपानके अंतर जो अनुभवतत्त्व स्थित है, तिससे प्रयोजन है, सो न प्राण है, न अपान है, तिस अनुभव आत्मतत्त्वकी हम उपासना करते हैं, प्राण अपानकोटविषे क्षयको प्राप्त होता है, अरु अपान प्राणकोटविषे क्षय होता है, तिस प्राण अपानके मध्यविषे चिदात्मा है तिसकी हम उपासना करते हैं॥ हे मुनीश्वर! प्राणका जो प्राण है, अरु अपानका जो अपान है, जीवका जीव है; अरु देहका आधारभूत है; ऐसा चिदात्मा है, तिसकी हम उपासना करते हैं. जिसविषे सर्व हैं, जिसते यह सर्व है, अरु जो यह सर्व है ऐसा जो चिदात्मा है, तिसकी हम उपासना करते हैं, जो सर्व प्रकाशका प्रकाश है, अरु सर्व पावनका पावन है, अरु सर्व भाव अभाव पदार्थका आपका अपना आप है, तिस चिदात्माकी हम उपासना करते हैं, जो पवन परस्पर हृदयविष संपुटरूप है, तिसविषे स्थित जो साक्षीरूप है, अरु अंतर वाहर सव और वही है, तिस चिदात्माकी हम उपासना करते हैं, जव अपान अस्त होता है, अरु प्राण उपजा नहीं, तिस