पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६७०

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नास्तिकवादनिराकरणवर्णन-निर्वाणकरण, उत्तराई ६. ( १५५१ ) सत्ताविषे द्वैत जगत् कछु बना नहीं, परमार्थसत्ता सदा अपने आपविये स्थित है, तिसविषे जो सृष्टि भासती है, सो स्वप्नवत अकारण है, ताते ज्ञानवान् पुरुष सर्व शब्द अर्थको नहीं जानता है, ऐसा पुरुष हमारे उपदेशके योग्य नहीं, काहेते किजो सर्व शास्त्रोंका सिद्धांत आत्मपद है,जो तिसको जाना है, तिसको बहुरि कर्तव्य कछु नहीं, अरु जिसको ऐसी दशा नहीं प्राप्त भई सो उपदेशका अधिकारी हैं,अरु यह जगत् आत्माका किंचन है, अज्ञानीको सव भासता है, अरु ज्ञानीके निश्चयविषे कछु नहीं, जैसे संकल्पकरि एक वृक्ष रचा, तिसके पत्र दास फूल फल उसको भासते हैं, अपरके मनविषेशून्य होते हैं, तैसे अज्ञानीके निश्चयविषे जगत होता है, ज्ञानीके निश्चयविषे विलास है,आत्माते इतर कछु नहीं। हे रामजी । आत्मसत्ता सर्वत्र सर्वव्यापी हैं, तिसविषेजैसा निश्चयफ़रना होता है, अप्रत्यय भावनाकी दृढताते तैसे हो भासता है, जिस पदा र्थका निरंतर हृढ अभ्यास होता है, शरीरकेत्यागे हुए भी यही अभ्यासरूप धार लेता है, अरु आत्मसत्ता ज्ञानमात्र है, केवल अद्वैत संवित् सबका अपना आप हैं, जैसे इसको स्वरूपका ज्ञान हुआ है, सोशास्त्रके दंडते रहित होता हैं, अरु वेद शास्त्र जो पदार्थको भला बुरा साँच अरु झूठ वर्णन करते हैं, जिस पुरुषको तिसविषे निश्चय होता हैं, तिसको वासनाके अनुसार वेद फल देते हैं, अरु जिसके निश्चयविषे आत्मते भिन्न सर्व शब्दका अभाव हुआ है, तिसको आत्म अनात्मविभागकलना भी नहीं रहती; देह रहै अथवा न रहै । हे रामजी 1 जिसकी संवित् जगतके शब्द अर्थविर्षे बँधी हुई है, तिसको पदार्थविषे रागद्वेष उपजता है, जैसे सुषुप्तिविषे आत्मसत्ता है, अरु अभावकी नई स्थित है, तैसे नास्तिकवादी भी अपने जडस्वरूपको देखते हैं, काहेते कि,तिनको जड़ शून्यका अभ्यास है, तिसकार उनकी संपत्ति दृश्य सुखसाथ वेधीहुई हैं, इसकरि तिनका जगत्म नहीं मिटता, उस मलीन वासनासाथ जो संवित् मिली है, इसकारै उनको जड़ पत्थररूप प्राप्ति होते हैं, तिस जडताको भोगिकार वासनाके अनुसार बारे परिणमैंगे, अरु सुखदुःखको भोगेंगे उस भावनाकार कछुक जगत्भान शून्य हो जाता है,