पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६७७

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(१५५८) , योगवासिष्ठ । दिशताधिकादशः सर्गः २१२. चेतनाकाशपरमज्ञानवर्णनम् । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! जिन पुरुषोंको आत्मा परमात्माका साक्षाकार हुआ है, सो कैसे हो जाते हैं, अरु कैसा उनका आचार होता है। सो मेरे तांई कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी ! जैसे उनकी चेष्टा अरु जैसे उनका निश्चय है, सो सुन, सबके साथ उनका मित्रभाव होता है, पाषाणसाथ भी मित्रभाव होता है, अरु बाँधवको ऐसे जानते हैं, जैसे वनके वृक्ष पत्र होते हैं, स्त्री पुत्रादिकसाथ ऐसे होते हैं, जैसे वनके मृग पुत्रसाथ होते हैं, जैसे उनविषे स्नेह नहीं होता, तैसे पुत्रादिकविषे भी स्नेह नहीं करते, अरु जैसे माताकी पुत्रविषे दया होती हैं, तैसे वह सबके ऊपर दया करते हैं, अरु निश्चयते उदासीन रहते हैं, जैसे आकाश किसीके साथ स्पर्श नहीं करता, तैसे वह स्पर्श किसीसाथ नहीं करते, अरु जेती कछु आपदा हैं, सो उनको परमसुख है, अरु जेते कछु जगतविषेरस, सो तिनको विरस हो जाते हैं, न किसीविषे राग करते हैं, न किसीविषे द्वेष करते हैं, तृष्णा करते दृष्टभी आते हैं, परंतु अंतरते जड पत्थरकी नाई होते हैं, व्यवहार करते भी हैं, परंतु निश्चयते परमशून्य मौन होते हैं, अर्थ यह कि सदा-समाधिविषे स्थित होते हैं, अरु सब क्रिया करते दृष्ट आते हैं सो किस प्रकार करते हैं,जो सबको स्तुति करनेयोग्य हैं, यत्नते रहित सब क्रियाका आरंभ करते भी हैं, परंतु निश्चयते सदा आपको अकर्ता जानते हैं, अरु जो कछु प्रारब्धवेग कार आनि प्राप्त होता है, तिसको भोगते हैं, अरु देश काल क्रिया सबको अंगीकार करते हैं, अरु जो परस्त्रीआदिक अनिष्ट आय प्राप्त होवे, तिसका त्याग भी करते हैं, परंतु निश्चयते सदा अकर्ता ज्योंके त्यों रहते हैं, अरु सुखदुःखकी प्राप्तिविषे समबुद्धि रहते हैं, अरु प्रकृत आचारविषे यथाशास्त्र विचरते हैं, परंतु स्वरूपते कदाचित् चलायमान नहीं होते, जैसे फूलके मारनेकार सुमेरु पर्वत चलायमान नहीं होता, तैसे दुःखसुखकी