पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६७८

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चेतनाकाशपरमज्ञानवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१५५९ ) प्राप्तिविषे चलायमान नहीं होते, सदा स्वभावविषे स्थित रहते हैं, सुख दुःखको भोगते वहभी दृष्टि आते हैं, अरु उनके निश्चयविषे कछु नहीं होता, जैसे स्फटिकमणिविष कोऊ रंग राखिये तब तिसविघे रंग भासता है, परंतु उसका रूप कछु अपर नहीं हो जाता, स्फटिक मणि ज्योंकी त्यों रहती हैं, तैसे सुखदुःखके भोग ज्ञानवानविषे दृष्टआते हैं, परंतु स्वरूपते चलायमान कदाचित नहीं होता, चेष्टा अज्ञानीकी नाई करते हैं, परंतु निश्चयते परम समाधि है, जैसे अज्ञानीको भविष्यका राग द्वेष सुख दुःख कछु नहीं होता, तैसे ज्ञानीको वर्तमानका राग द्वेष नहीं होता, अरु स्वाभाविक चेष्टा उसकी ऐसे होती हैं, कि सर्व साथ मित्रभाव है, न उसते कोऊ खेदवान् होता है, न वह किसीते खेदवान होता है, अरु जब उसको सुख आनि प्राप्त होता है, तब रागवान् दृष्ट आता है, अरु दुःखकी प्राप्तिविषे दोषवान् दृष्ट आताहै, परंतु निश्चयते उसकी हर्षशोक कछु नहीं,जैसे नट स्वांग लाता है,जैसे स्वांग होता है,तैसी चेष्टा करता है, राजाका स्वांग होवे, अथवा दरिद्रका होवे, परंतु निश्चयअपने रूपविषे होता है, तैसे ज्ञानवान् विषे सुख दुःख इष्ट आते हैं, परंतु निश्चयउनका आत्मस्वरूपविषे होता है, अरु पुत्र धन बाँधव आदिकको बुबुदेकीनई जानता है, जैसे जलविषे तरंग बुदे होते हैं, बहुरि लीन भी हो जाते हैं, परंतु जलेको राग द्वेष कछु नहीं, तैसे ज्ञानवानको राग द्वेष कछु नहीं; होता, अरु सबके ऊपर दयास्वभाव होता है; अरु पतित प्रवाहविषेजो सुख दुःख आनि प्राप्त होता है, तिसको भोगता है, जैसे वायु चलता है। तब दुर्गध सुगंधको साथ ले जाता है, परंतु वायुको रागद्वेष कछु नहीं, तैसे ज्ञानवान्को रागद्वेष कछु नहीं, बाहर अज्ञानीकी नाईं व्यवहार करता है, परंतु निश्चय जगत्को भ्रांतिमात्र जानता है, अथवा सर्व ब्रह्म जानता है, सदा स्वभावविषे स्थित होता है, अनिच्छित प्रारब्धको भोगता है, परंतु जाग्रतविषे सुषुप्तिकी नई स्थित है, पूर्व अरु भविष्यतकी चितवना नहीं करता, वर्तमानविषे विचरता है, सो अंतरते शीतल रहता है, बाह्य इष्ट अनिष्ट दृष्ट आते हैं, अंतरते अद्वैतरूप है, ज्ञानवान् कर्म करता है, परंतु कर्मविषे अकर्मको जानता है, अरु जीवताही मृत