पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६७९

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(१९६०) योगवासिष्ठ । ककी नाईं है ।। हे रामजी । जैसे मृतक होता है. तिसको बहुरि जगत्की कलना नहीं फुरती, तैसे जिसको आत्मपदकी अहंप्रत्यय हुई है, तिसको द्वैत नहीं भासता; प्रत्यक्ष व्यवहार उसविषे दृष्ट भी आताहै,परंतु निश्चयविषे अर्थ शांत हो गया है ॥ राम उवाच ।। हे भगवन् ! यह ज्ञानीके लक्षण जो तुमने कहे सो तिनको वही जानै, अपर कोऊ नहीं जानता, काहेते कि, बाहिरकी चेष्टा अज्ञानीके तुल्य है, अरु अंतरते शांतरूप है, जो ब्रह्मचर्यकार भी अंतर धैर्य होता है, तपस्याकार भी रागद्वेष कछु नहीं करता अरु एक मिथ्या तपस्वी है,तिसी प्रकार हो बैठते हैं, उनका निश्चय सत् हैं, अथवा असत्य है, उनको कैसे जानिये सो कृपाकरिकै कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! यह निश्चय सत् होवे, अथवा असत्य होवै, यह लक्षण संतके हैं, अरु आत्माका जो साक्षात्कार है, यह निश्चय अपने आपकार जानता है, अपर किसीकार नहीं जानता, इसी कारणते तिसका लक्षण ज्ञानीही जानता है, अपर कोऊ नहीं जानता, जैसे सर्पके खुदको सर्पही जानता हैं, अपर कोऊ नहीं जानता, तैसे ज्ञानीका लक्षण स्वसंवेद्य है ॥ हे रामजी ! यह जो गुण कहे हैं,सो ज्ञानवादविष स्वाभाविक भी रहते हैं, अपरको यत्रसाध्य हैं, अरु सर्व जगत् तिसको भ्रांतिमात्र हैं, अथवा अनुभव दृष्ट करिके अपना आपही भासता है, इस कारणते परमशाँत है, रागद्वेष उसके निश्चयविषे नहीं फुरता, अरु अपने निश्चयको बाह्य प्रगट नहीं करता, अरु जो अधिकारी होता है, तिसको जनावता भी है,अरु जो अनधिकारी अज्ञानी हैं। तिसको जान भी नहीं सकता, जैसे बावनवेदनकी बड़ी सुगंधि है, परंतु दूरते नहीं भासती, तैसे अज्ञानी उसके निश्चयते दूर है, इस कारणते वह जान नहीं सकता, जो उसको चर्मदृष्टिकार देखै सो उसको देखि नहीं सकता,अरु वह अधिकारीविना जनावता भी नहीं, जैसे अमोलक चिंतामणि होवै,अरु नीचको दीजै तो भी उसके माहात्म्यको वह नहीं जानता ताते उसका निरादर करता है, तैसे आत्मरूपी चिंतामणि है, अरु अनधिकारी जो अज्ञानी है; सो तिसका माहात्म्य नहीं जानता, उसते इसका निरादर होता है, इसी कारणते ज्ञानवान प्रगट नहीं करता ।