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चिरंजीविहेतुकथनवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

क्षणविषे कलंकते रहित है, तिस चेतनतत्त्वकी हम उपासना करते हैं. जब प्राण अस्त होता है; अरु अपान उपजा नहीं, ऐसा जो नासिकाके अग्रविषे शुद्ध आकाश है, तिसविषे जो सत्यता है, तिस चिद् सत्यताकी हम उपासना करते हैं, जो प्राण अपानके उत्पत्तिका स्थान है, अंतर बाहर सर्व ओरते व्यापा है, सब योगकलाका आधारभूत है, तिस चिद‍्तत्त्वकी हम उपासना करते हैं, जो प्राण अपानके रथपर आरूढ है; अरु शक्तिका शक्तिरूप है; तिस चिद्‍तत्त्वकी हम उपासना करते हैं॥ हे मुनीश्वर! जो संपूर्ण कला कलंकते रहित, अरु सर्व कला जिसके आश्रय हैं, ऐसा जो अनुभवतत्त्व है, सर्व देवता जिसकी शरणको प्राप्त होते हैं तिस आत्मतत्त्वकी हम उपासना करते हैं॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे भुशुण्डोपाख्याने प्राणापानसमाधिवर्णनं नामैकविंशतितमः सर्गः ॥२१॥



द्वाविंशतितमः सर्गः २२.

चिरंजीविहेतुकथनम्।

भुशुण्ड उवाच॥ हे मुनीश्वर! इसप्रकार मैं प्राणसमाधिको प्राप्त हुआ हौं, इस क्रम करिकै मैं आत्मपदको प्राप्त हुआ हौं इस निर्मल दृष्टिको आश्रय करिकै स्थित हौं, एक निमेष भी चलायमान नहीं होता; सुमेरु पर्वतकी नाईं स्थित हौं, चलता हुआ भी स्थिर हौं, जाग्रत‍्विषे भी सुषुप्त हौं, स्वप्नविषे भी स्थित हौं, सर्वदा आत्मसमाधिविषे लगा रहता हौं, विक्षेप कदाचित् नहीं होता॥ हे मुनीश्वर! नित्य अनित्य भावकारे जो जगत् स्थित है, तिसको त्यागिकरि मैं अंतर्मुख अपने आपविषे स्थित हौं, अरु प्राण अपानकी कला जो तुम्हारे विद्यमान कही है, सो तिसका सदा ऐसेही प्रवाह चला जाता है, तिसविषेअयत्नसमाधि है, इसकरि मैं सदा सुखी रहता हौं, कष्ट कछु नहीं होता, अरु जिसको यह कला नहीं प्राप्त भई सो कष्ट पाता है॥ हे सुनीश्वर! अज्ञानी जो जीव हैं, महाप्रलयपर्यंत संसारसमुद्रविषे डूबते हैं,