पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६८०

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चेतनाकाशपरमज्ञानवर्णन-निर्यणप्रकरण, उत्तराई ६., (१५६१) हे रामजी। अपने ऐश्वर्यको जो प्रगट करता है कि, हमको अर्थकी प्राप्ति होवैगी, अरु इमारी मान्यता होवैगी, अरु हमारे चेले बनेंगे, हमारी पूजा होवैगी, सो अज्ञानी है, और ज्ञानवान् पदार्थको गंधर्वनगर अरु इंद्रजालकी नाईं जानते हैं, बहुवारि वांछा किसकी करें, इस कारणते अनधिकारीको अपना इष्ट नहीं प्रगट करते, जो कोङ निकट बैठता है, तो भी अपने निश्चयरूपी अंगको सकुचाय लेते हैं, जैसे कच्छू अपने अंगको सकुचाय लेता है, तैसे वह निश्चयरूपी अंगको सकुचाय लेता है, अरु जो अधिकारी देखता है, तिस प्रति प्रगट करता है । हे रामजी! पात्रविषे पदार्थ पाया शोभता है, अपात्रविषे पाया अनिष्ट हो जाता है, जैसे गऊको घास देता है, तब वह भी क्षीर होता है, अरु सर्पको क्षीर दिया तौ विप हो जाता है, तैसे अधिकारीको दिया शुभ होता है, अनधिकारीको अनिष्ट हो जाता है । हे रामजी ! अणिमाते आदिलेकार जो सिद्धि हैं, सो जपकार दुव्यकार अरु कालकार अथवा देशकार प्राप्त होती हैं, सो अभ्यासके बलकार अज्ञानीको भी प्राप्त होती हैं,अरु ज्ञानीको भी होती हैं, परंतु ज्ञानका फल नहीं, यह जप आदिकका फल है, अरु जिसकी सिद्धताके निमित्त जो पुरुष दृढ होकार लगता है, सोई सिद्ध होता है, जो इन सिद्धियोंका दृढ अभ्यास करता है, तब उनकारकै आकाशमार्गविषे उड़ने आने जाने लगता है, सो यह पदार्थ तबलग रस देते हैं, जबलग आत्ममार्गते शून्य है ॥ हे रामजी ! परम सिद्धता इनकार प्राप्त नहीं होती, सो परम सिद्धता आत्मपद है, जिसको आत्मपदकी प्राप्ति भई है, सो इनकी अभिलाषा नहीं करता, ऐसा पदार्थ पृथ्वीविषे कोऊनहीं,आकाशविषे देवताके स्थानोंविषे भी नहीं, जिसविषे ज्ञानीका चित्त मोहित होवै, सब पदार्थ ज्ञानवान्को मृगतृष्णाके जलवत् भासते हैं, अरु मेरे सिद्धांतविषे तौ यही है, कि सदा विषयते उपरांत होना, अरु आत्माको परम इष्ट जानना, इसीका नाम ज्ञान है, अरु जो प्रारब्धकारकै आनि प्राप्त होवे, तिसको करता है, परंतु करणेकरि तिसका कछु अर्थ सिद्ध नहीं होता, अरु अकरणेविषे कछु प्रत्यवाय नहीं होता, न किसी अर्थका आश्रय करता है न तिसके निमित्त किसी भूतका