पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

चेतनाकाशपरमज्ञानवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१५६३) तब वह भी चूर्ण हो जाता है, जैसे जिस पदार्थको सर्वदा अभ्यास करता, सो प्राप्त होता है, जिसकोआत्मपद अभ्यासकार प्राप्त होताहै,सोपरमश्रेष्ठ हो जाता है, अरु सब जगत्के ऊर्ध्व विराजता है, अरु परमद्याकी खान होता है, जैसे मेच समुद्रते जल लेकर वर्षा करते हैं, सो जलका स्थानक समुद्र होता है, तैसे जेते कछु दया करते हुए आते हैं,झानवान्केप्रसादकार करते हैं, सर्व दृयाका स्थान ज्ञानवान् है,अरु ज्ञानवान् सबकासुहृद् है, जोकछु प्रवाहपतित कार्य आनि प्राप्त होता है,तिसको करता है अरु जो शरीरको दुःख अनि प्राप्त होता है, तिसको ऐसे देखता है, जैसेअन्य शरीरको होता है; अपनेविषे सुख दुःख दोनोंका अभाव देखता है,अरु जिसको अभ्यास नहीं प्राप्त भयो, सो शरीरके रागद्वेषकर जलता है, अरु ज्ञानीको शांतिमान् देखिकार अपरको भी प्रसन्नता उपज़ आती है, जैसे पुण्यकारकै जो स्वर्ग गया है, तिसको वहां इष्ट पदार्थ दृष्ट आते हैं, कल्पवृक्ष सुंदर मंजरियोंसंयुक्त अरु सुंदर अप्सरा आदिक दृष्ट आते हैं, तिन पदार्थनको देखिकर प्रसन्नता उपजती है,तैसे ज्ञानवा की संगतिविषे जो पुरुष जाता हैं, तिसको प्रसन्नता उपजि आती हैं, जैसे पूर्णमासीका चंद्रमा शीतलता उपजाता है, जैसे ज्ञानवान्की संगति शीतलता उपजाती हैं, ज्ञानवान् आत्मपदको पायकार आनंदवान होता है सो आनंद दूर नहीं होता, काहेते कि आपही तिस आनंदकार अष्ट सिद्धि स्वयं तृणसमान भासती हैं । हे रामजी ! ऐसे पुरुषका आचार अरु जिस स्थानोंविषे रहते हैं, सो सुन,कई तौ एकांत जाय बैठते हैं, कई शुभस्थानविषे रहते हैं, कई गृहस्थहीविघे रहते हैं, कई अवधूत हुए सबको दुर्वचन कहते हैं, कई तपस्या करते हैं, कई परमध्यान लगाय बैठते हैं; कई नंगे फिरते हैं, कई बैठे राज्य करते हैं, कई पंडित होकर उपदेश करते हैं, कई परम मौन धार रहे हैं, कई पहाडकी कंदराविषे जाय बैठते हैं, कई ब्राह्मण हैं, कई संन्यासी हैं, कई अज्ञानीकी नई विचरते हैं, कई नीच पामर होते हैं, कई आकाशविषे उडते हैं, इत्यादिक नानाप्रकारक़ी क्रिया करते दृष्ट आते हैं, परंतु सदा अपने स्वरूपविषे स्थित हैं ॥ हे रामजी । जिसको पुरुष